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________________ २७६ तक तो जीव की उसमें पायी जाने वालो योग्यता के आधार पर क्रोध कषायरूप परिणति होती रही और जिस क्षण क्रोधकर्म का उदय विनष्ट होकर मानकर्म का उदय जीव के होगया उस क्षण से उसकी उसमे पायी जाने वाली योग्यता के ही आधार पर मान कपाय रूप परिणति होने लगी और यदि लोभ या माया कर्मों में से किसी एक का उदय होगया तो यथायोग्य लोभ या माया कषायरूप परिणत उस जीव की होने लगी। इस तरह जीव की क्रोध कपायरूप परिणति मान, लोभ या माया कषायरूप उसकी परिणति की कारण सिद्ध नहीं होती है। इसी प्रकार जीव की ससार रूप परिणति के अनन्तर क्षण मे होने वाली मोक्षरूप परिणति की कारण उससे विलक्षण अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती ससार रूप परिणति को कदापि नही माना जा सकता है प्रत्युत ससार के कारणभूत द्रव्यकर्मी, नोकर्मों और भाव कर्मों के अभाव को ही उसमे कारण मानना उपयुक्त है। इससे यह सिद्ध होता है कि जीव के जव तक कर्मों और नोकर्मो का सयोग विद्यमान रहता है तब तक तो उसकी ससार रूप परिणति रहा करती है और जिस क्षण उसका कर्मो और नोकर्मो के साथ सयोग विछिन्न हो जाता है उस क्षण से उसकी मोक्षरूप परिणति होने लगती है । इस तरह वस्तु मे अनादिकाल से उपादानशक्ति के विद्यमान रहते हुए भी विवक्षित कार्य की उत्पत्ति का यथासमय होना निमित्त सामग्री की अनुकूलता पर ही निर्भर रहा करता है उस कार्य की अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्याय उसकी नियामक कदापि नही होती है । जसे जीव की क्रोधपर्याय के अनन्तर क्रोधपर्याय भी हो सकती है अथवा मान, माया लोभ पर्यायो मे से कोई भी पर्याय हो सकती है वहा ऐसा नियम नही है कि क्रोधपर्याय के
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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