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स्वीकार करता है और उसमे अटूट आस्था भी रखता है परन्तु इसके साथ ही वह यह भी जानता है कि कार्य की सिद्धि एकात नियतवाद की मान्यता के आधार पर नही हो जायगी, इसके लिए तो उसे कार्यसिद्धि के सकल्प और कार्यकारणभाव के विकल्पो के आधार पर पुरुषार्थ करना होगा। मुझे आश्चय
और दुख होता है कि प० फूलचन्द्रजी आदि एक ओर तो एकान्त नियतवादो बने हुए है और इसी का वे प्रचार भी करते हैं तथा कथचित् अनियतवाद की मान्यता का इस आधार पर निषेध करते हैं कि इससे सर्वज्ञता की हानि हो जायगी, लेकिन दूसरी ओर अपने कार्य की सिद्धि का सङ्कल्प, उसकी सिद्धि के लिए कार्यकारणभाव के विकल्प तथा सकल्प और विकल्प के आधार पर पुरुषार्थ भी वे करते है, साथ ही यह भी कहते फिरते है कि किसी के करने से कुछ नही होगा किन्तु जब होना होगा तभी होगा।
तात्पर्य यह है कि यद्यपि प्रत्येक वस्तु मे स्वप्रत्यय परिणमन (कार्य) तो स्वत ही होते रहते हैं परन्तु स्वपरप्रत्यय परिणमन (कार्य) जो होते है वे निमित्त सापेक्ष हो होते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर असज्ञी पचेन्द्रिय तक के जीवो का पुरुपार्थ भो उस-उस इन्द्रिय से जन्य ज्ञान के स्वसवेदन रूप श्र तज्ञान के आधार पर उसमे कारण हुआ करता है । सज्ञी पचेन्द्रिय जीवो का पुरुषार्थ कार्यसिद्धि के सङ्कल्प और कार्यकारणभाव के विकल्प के आधार पर उसमे कारण होता है, इसलिए वह जैसी कार्यसिद्धि का सङ्कल्प करता है उसके अनुरूप वह अपनी बुद्धि के अनुसार कार्यकारणभात्र का भी निर्णय किया करता है और तव वह कार्यसिद्धि के लिए पुरुषार्थ करता है । यह बात दूसरी है कि पुरुषार्थ कार्यसिद्धि के अनुकूल हो, उपादान