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________________ २५५ त्वात्पर्यायाणाम् । न च शक्तेनित्यत्वे सहकारिकारणानपेक्षयवार्थस्य कार्यकारित्वानुषग , द्रव्यशक्ते केवलाया कार्यकारित्वानभ्युपगमात् । पर्यायशक्ति समन्विता हि द्रव्यशक्ति कार्यकारिणी, विशिष्टपर्याय परिणतस्यैव द्रव्यस्य कार्यकारित्व प्रतीते । तत्परिणतिश्चास्य सहकारिकारणापेक्षयव-इति पर्यायशक्तेस्तदैवभावान्न सर्वदा कार्योत्पत्ति प्रसग सहकारिकारणापेक्षावैयर्थ्य वा ।" (प्रमेयकमलमार्तण्ड २-१ पृष्ठ १८७) अर्थ-यह जो कहा जाता है कि शक्ति नित्य है या अनित्य है-इत्यादि । सो यह प्रश्न क्या द्रव्यशक्ति के विपय मे है अथवा पर्यायशक्ति के विपय मे है क्योकि पदार्थ द्रव्य और पर्याय उभयशक्ति सम्पन्न होते हैं। उन दोनो शक्तियो मे से द्रव्यशक्ति नित्य ही है क्योकि द्रव्य अनादि निधन स्वभाव वाला होता है। पर्यायशक्ति तो अनित्य ही है क्योकि पर्याय सादिसान्त होती है । यह कहा जाय कि जब शक्ति नित्य है तो सहकारी कारण की अपेक्षा किये बिना ही कार्यकारित्व की प्रसक्ति हो जायगी-सो ऐसा नहीं है क्योकि केवल द्रव्यशक्ति का कार्यकारित्व नहो स्वीकार किया गया है, किन्तु पर्यायशक्ति से समन्वित द्रव्य ही कार्य करने में समर्थ हआ करती है । इसका कारण यह है कि विशिष्ट पर्याय से परिणत द्रव्य मे ही कायकारित्व की प्रतीति होती है और द्रव्य की उस विशिष्टपर्यायरूप परिणति सहकारी कारण की अपेक्षा से ही हआ करती है अत पर्यायशक्ति तभी उत्पन्न होती है जब सहकारी कारण का समागम द्रव्य को प्राप्त होता है इस तरह न तो सर्वदा कार्योत्पत्ति की प्रसक्ति होती है और न कार्योत्पत्ति मे सहकारण की अपेक्षा ही व्यर्थ होती है। इसमे स्पष्ट बतला दिया गया है कि वस्तु मे अनित्य
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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