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इसका नियामक क्या है ? यद्यपि प० फूलचन्द्र जी ने अपने उक्त पक्ष की पुष्टि के लिये उक्त मन्तव्य मे कुछ तर्क उपस्थित किये है लेकिन उनसे उनके पक्ष की पुष्टि नहीं होती है । प० जी के वे तर्क निम्न प्रकार हैं
(१) ज्ञानावरणादि रूप कर्म पर्याय के नाश से उसकी अकर्म रूप उत्तर पर्याय ही प्रगट होती है जीव की केवल ज्ञान पर्याय उससे प्रगट नही हो सकती है।
(२) ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय प्रध्वसाभाव रूप ही है और अभाव को कार्योत्पत्ति मे कारण मानने से खर विषाण या आकाश कुमुम का भी कार्योत्पत्ति मे कारण मानना होगा।
(३) यदि खर विषाण या आकाश कुसुम की कार्योत्पत्ति मे प्रसक्त कारणता को समाप्त करने के लिए अभाव को भावान्तर स्वभाव मान कर ज्ञानावरणादि कर्मों की अकम रूप उत्तर पर्याय को ही जीव की केवल जान पर्याय की उत्पत्ति मे कारण माना जाय तो यह भी एक निराधार कल्पना है क्योकि उक्त सूत्र से यह अर्थ फलित नही होता है कि ज्ञानावरणादि कर्मों की अकर्म रूप उत्तर पर्याय से जीव की केवल ज्ञान पर्याय प्रगट होतो है।
यद्यपि मुझे पण्डित जी के प्रथम तर्क के इस कथन मे सामान्य रूप से कोई विवाद नहीं है कि ज्ञानावरणादि रूप कर्म पर्याय के नाश से उसकी अकर्म रूप उत्तर पर्याय प्रगट होती है, परन्तु इसके साथ ही मैं इतना और कहना चाहता हूँ कि ज्ञानावरणादि कर्मों को इस अकर्म रूप उत्तर पर्याय की प्रगटता जीव केवल ज्ञान पर्याय के प्रगट होने मे उपादान कारण न होकर निमित्त (सहायक) कारण होती है क्योकि ज्ञानावरणादि कर्म पर्याय का क्षय उसकी अकर्म रूप उत्तर पर्याय