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________________ २२६ होता है जब तक ज्ञानावरणादि कर्मों का सर्वथा क्षय नही हो जाता है । तात्पर्य यह है कि आगम मे पदार्थो की पर्यायो के स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय ऐसे दो भेद वतलाये गये हैं तथा इन दोनो मे अन्तर भी सिर्फ इस बात का वतलाया गया है कि जहाँ स्वप्रत्यय पर्याय परनिरपेक्ष होकर ही अपने उपादान मे प्रगट हो जाती है वहाँ स्वपरप्रत्यय पर्याय यद्यपि प्रगट तो अपने उपादान मे ही होती है फिर भी उसकी प्रगटता मे पररूप निमित्त की सहायता अपेक्षित रहा करती है। मुझे विश्वास है कि प० फूलचंद्र जी भी केवलज्ञान को जीव की स्वपर प्रत्यय पर्याय मानने मे मेरे साथ होंगे और फिर भले ही वे इसे जीव की स्वपरप्रत्यय पर्याय न मानें लेकिन आगम मे तो वस्तु स्वभाव के शक्त्यशो मे (अविभागी प्रतिच्छेदो मे ) होने वाली पड्गुणहानि वृद्धि रूप पर्यायो को ही सिर्फ स्वप्रत्यय पर्याये स्वीकार किया गया है अत इनके अतिरिक्त वस्तु मे पायी जाने वाली सभी पर्याय का अन्तर्भाव स्वपर प्रत्यय पर्यायों मे ही होता है क्योकि स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय के अलावा पर्यायो के अन्य किसी प्रकार के भेदो का कथन आगम मे नही पाया जाता है । अत. यह बात निश्चित समझना चाहिये कि जीव को केवल ज्ञान पर्याय का समावेश उसकी स्वपरप्रत्यय पर्यायो मे ही होता है और इसलिए यह बात भी निश्चित हो जाती है कि केवल ज्ञान अपने उपादान मे प्रगट होकर भी तब तक प्रगट नही होता है जब तक ज्ञानावरणादि उक्त तीन कर्मों का सर्वथा क्षय नही हो जाता है । इस तरह में दृढ़ता के साथ यह कह सकता हूँ कि
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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