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________________ २२० का प्रयत्न करे जिन माधनो के आधार पर उसकी भाववती क्रियावती शक्तियो का आगे चलकर उक्त मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति रूप परिणमन होना रुक जाता है। जीव के इस प्रयत्न का नाम सम्यक् पुरुषार्थ है। तात्पर्य यह है कि जीव का पुम्पार्थ दो तरह का होता है। उनमे से एक पुरुषार्थ तो वह है जिसके आधार पर उमकी जानोपयोग स्प भाववती शक्ति का मिथ्यात्व और अज्ञानरूप परिणमन होता है व योगात्मक क्रियावती शक्ति का अविरति स्प परिणमन होता है तथा दूसरा पुरुमायं वह है जिसके आधार पर उसकी ज्ञानोपयोगस्प भाववती शक्ति का मम्यगदर्शन और मम्यग्ज्ञानस्प परिणमन होता है और योगात्मक क्रियावती शक्ति का निवृत्यश के रूप मे मम्यक् चारित्रस्प परिणमन होता है। इन दोनों प्रकार के पूरुपार्थो मे से पहला पुरुपार्थ तो मोहनीय कर्म के तीब्रोदय, अन्तराग कर्मों के मन्द क्षयोपशम और पुण्य कर्मों के मन्दोदय के आधार पर अशुभ म्प होता है व दूसरा पुरुपार्य मोहनीय कर्म के मन्दोदय और पुण्य कर्मो के तीब्रोदय तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मो के यथायोग्य सातिशय क्षयोपशम के आधार पर शुभरूप होता है। पहले पुरुपार्थ को पापाचरण कहा जाता है और दूसरे पुरुपार्थ को पुण्याचरण कहा जाता है जो देव पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, सयम, तप और दान आदि रूप होता है। इम पुण्याचरण को अभव्य मिथ्यावृष्टि जीव अपनाता है तो उसे कथन के रूप मे व्यवहार धर्म कह सकते है क्योंकि इसके बल पर अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि क्रमश क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्यलब्धि को प्राप्त कर लेता है और मरण के पश्चात् नवम गवेयक तक भी पहुँच जाता है परन्तु वह
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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