SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ अत्यन्त सहायक हो सकता है । मेरा विद्वानों से निवेदन है कि वे इस पर तर्क और आगम के आधार पर विचार करने का प्रयत्न करे | वर्तमान मे विद्वानो का ध्यान आगम के रहस्यो का पता लगाने की ओर नही है यह वडे दुख की बात है । इस प्रकरण मे मेरा प्रयत्न जीव को कर्मों और नोकर्मो के साथ बद्धता तथा दो आदि वस्तुओं के सयोग सामान्य, निमित्त नैमित्तिक भाव और आधाराधेयभाव आदि की वास्तविकता ( सद्भूतता ) को बतलाने, व्यवहार और उपचार के अर्थों को स्पष्ट करने एव व्यवहार की हेयता व उपादेयता तथा उसके छूटने न छूटने के उपायों पर प्रकाश डालने का रहा है । आशा है कि विद्वानो का ध्यान इस ओर अवश्य जायगा । जीव की वास्तविकता ( सद्भुतता को प्राप्त ) कर्मवद्धता और नोकबद्धता मे से नोकर्मवद्धता की समाप्ति जैसा कि मैं पूर्व मे बतला चुका हूँ — कर्मवद्धता के समाप्त हो जाने पर अपने आप हो जाती है क्योकि नोकर्मवद्धता का अस्तित्व कर्मबद्धता की सत्ता पर ही निर्भर है । कर्मबद्धता की समाप्ति जीव तदनुकूल पुरुषार्थ द्वारा कर सकता है - इस बात को ऊपर बतला दिया गया है। इस सव विवेचन का सक्षेप मे सार यह है कि जीव अनादिकाल से विविध प्रकार के पौद्गलिक कर्मों के साथ वद्ध हो रहा है उनमे से ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के आधार पर उसकी स्वभावभूत भाववती शक्ति का ज्ञान के रूप मे यथासम्भव विकास हो रहा है वह विकसित ज्ञान हो इन्द्रियादिक के सहयोग से अपना परिणमन पदार्थ ज्ञानरूप से उपयोगात्मक
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy