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________________ २१७ जाता है तब आरम्भी पापो के सर्वथा त्यागरूप व्यवहार सम्यक् चारित्र की पूर्णता उस योगरूप क्रियावती शक्ति मे आ जाती है जिसके बल पर जोव आत्मलीनतारूप निश्चय सम्यक् चारित्र को प्राप्त कर लेता है और यदि उक्त प्रकार जीवो मे सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है तो वे जीव द्वादश गुणस्थान के अन्त समय मे सम्पूर्ण ज्ञानावरण, सम्पूर्ण दर्शनावरण और सम्पूर्ण अन्तराय कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने पर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य के धनी हो जाते हैं। उनमे तब केवल योगरूपता को प्राप्त क्रियावती शक्ति ही कमबन्ध का कारण रह जाती है जो कि केवल सातावेदनीय कर्म का मात्र प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ही उन जीवो के साथ कराती है और आगे चल कर जब क्रियावती शक्ति की योगरूपता समाप्त हो जाती है तो बन्ध का सर्वथा अभाव हो जाता है तथा बद्धकर्मों का भी यथासमय अभाव हो जाने पर नोकर्मवद्धता से भी वे जीव छूटकारा पा लेते है। मैने यहाँ पर जीव की भाववती और क्रियावती दोनो शक्तियो के कार्यों का विश्लेषण किया है जिससे ज्ञात होता है कि वास्तव मे ये दोनो शक्तियाँ ही अपने-अपने ढग से कर्मों और नोकर्मों की यथायोग्य अधीनता मे दर्शनमोहनीयकर्म और चारित्रमोहनीयकर्म के यथायोग्य सहयोग से विकृत होकर जीव को ससारी बनाये हुए हैं । इन दोनो शक्तियो के कार्यों का यह विश्लेपण जीव की ससार और मोक्ष की प्रक्रिया पर अच्छा प्रकाश डालता है तथा विद्वानो और जनसाधारण मे जो व्यवहार और निश्चय के रूपो को लेकर परस्पर विवाद की अत्यन्त कटुस्थिति उत्पन्न होगयी है उसकी समाप्ति मे भी यह
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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