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उसके आगे प्रत्याख्यानवरण कषायों का अनुदय होता जाता है वैसा-वैसा वन्ध मे भी अन्तर होता जाता है और अन्त मे जव सज्वलन की अनुभाग शक्ति मे कमी होते-होते अप्रत्याख्यानावरणादि सभी कपायो व नवनोकषांयो का सर्वथा अभाव हो जाता है तो स्थितिबन्ध और अनुभागवन्ध दोनो ही समाप्त हो जाते है केवल योगस्थिति के आधार पर प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध ही हुआ करते हैं ।
ऊपर के कथन से यह भी सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण मोह कर्म के उदय मे जीव की क्रियावती शक्ति की जैसी क्रियाशीलता अर्थात् योग स्थिति रहती है वैसी दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाने पर नही रहती है । इसी तरह आगे जैसी जैसी चारित्र मोहनीय कर्म की शक्ति भो क्षीण होती जाती है वैसा-वैसा योगस्थिति मे भी परिवर्तन होता जाता है । इम तरह योग स्थिति मे परिवर्तन होते जाने से किस गुणस्थान मे किन-किन कर्मों का और उन कर्मो को किन-किन प्रकृतियो का बन्ध होता है - इसका भी नियमन हो जाता | कर्म ग्रन्थो मे इस विषय का भी विस्तार से विवेचन पाया जाता है ।
इस प्रकार एक ओर तो दर्शनमोहनीय कर्म के आधार पर जीव का ज्ञान अनादि काल से विकृत होकर मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञान रूप परिणत हो रहा है तथा दूसरी ओर दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित चारित्र मोहनीय कर्म के उदय के आधार पर जीव की क्रियावती शक्ति का योगात्मक परिणमन भी मिथ्याचारित्र रूप परिणत हो रहा है । लेकिन जिस जीव मे दर्शन मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व