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हलन-चलन क्रिया होती है उसका नाम योग है । यह दो प्रकार का होता है—एक शुभरूप और दूसरा अशुभरूप । योग की शुभता का कारण पापकर्मों का मन्दोदय और पुण्यकर्मों का तीव्रोदय तथा यथायोग्य कर्मों का उपशम, क्षय और क्षयोपशम है व योग की अशुभता का कारण पापकर्मो का तीव्रोदय और पुण्यकर्मों का मन्दोदय तथा यथायोग्य कर्मों का मन्द क्षयोपशम
जीव की क्रियावती शक्ति का मन, वचन और काय के आधार पर जो उपर्युक्त प्रकार के योग के रूप मे परिणमन होता है वह योग ही वास्तव मे कर्मवन्ध का कारण होता है लेकिन इसमे इतनी विशेषता है कि वह योग जब तक मोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित ( अनुरजित ) रहता है तब तक तो जीव के साथ कर्मों का बन्ध प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के रूप मे चार प्रकार का होता है और जव योग मे मोहनीय कर्म का अनुरजन समाप्त हो जाता है तब स्थितिवन्ध और अनुभागवन्ध समाप्त हो जाते हैं तथा सामान्य योग के आधार पर केवल प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध ही हुआ करते हैं। इसी प्रकार जव योग का ही सर्वथा अभाव हो जाता है तब कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव हो जाता है।
इस कथन से यह भी सिद्ध होता है कि जीव की विकास को प्राप्त उपयुक्ताकार ज्ञानरूप भाववती शक्ति की दशनमोहकर्माधीनता के साथ योगरूप परिणत नियावती शक्ति को चारित्रमोहकर्माधीनता का जव तक सम्बन्ध रहता है तब तक तथा उनके क्रमश होने वाले अभाव मे कर्मवन्ध का रूप भिन्नभिन्न प्रकार का ही होता है जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार