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________________ २०१ चरणानुयामा ससार रूप होने के कारण सर्वथा हेय है, औपशमिक और क्षायोपशमिक परिणतियाँ यथासम्भव मोक्ष की कारण होने से यद्यपि उपादेय है, परन्तु ये परिणतियाँ छूट जाती हैं । इस तरह केवल क्षायिक परिणतिया ही ऐसी परिणतियाँ है जो उपादेय भी है और एक बार होने के पश्चात् फिर कभी छूटती भी नही है। चरणानुयोग की व्यवस्था चरणानुयोग का सम्बन्ध जीव के दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप पुरुपार्थ से है। जीव का यह पुरुषार्थ मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के आधार पर ही हुआ करता है । इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है। जीव अनादिकाल से तो मोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित होता हुआ अपना पुरुषार्थ मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप ही करता आ रहा है और इस पुरुषार्थ के आधार पर वह अनादिकाल से हो सतत ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्मो से बद्ध होता आ रहा है जिसका परिणाम जीव को ससार भ्रमण के रूप मे प्राप्त हो रहा है। जीव का उक्त आठ कर्मों के साथ जो बन्ध होता है वह प्रकृतिवन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध के रूप मे चार प्रकार का है। इनमे से प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध तो नोकर्मवर्गणा के भेद मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त ( सहयोग ) से होने वाली जीव के प्रदेशो की हलनचलनरूप क्रिया-जिसे आगम मे योग नाम से पुकारा गया ,
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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