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________________ १६० पृथक्-पृथक् ज्ञान करता हुआ ही वस्तु का ज्ञान करता है इसलिये वह नयरूप होकर ही प्रमाण रूप है । यही व्यवस्था शब्दरूप श्रुत प्रमाण मे भी समझना चाहिये । प्रकृत मे उपयोगी न होने से नय तथा प्रमाण की उक्त व्यवस्था पर यहा पर विशेष प्रकाश डालना मैंने आवश्यक नही समझा है । इस प्रकार वस्तु मे और वस्तु के प्रतिपादक शब्दरूप तथा उसके ज्ञापक ज्ञानरूप श्रुत प्रमाण मे निश्चय और व्यवहार के रूपो को सही रूप मे समझ कर इनका यथास्थान समुचित उपयोग करने से ही वस्तु तत्त्व को समझा जा सकता है । वैसे तो समयसार की गाथा १४४ के अनुसार उपर्युक्त निश्चय और व्यवहार के विकल्पो से रहित स्वाश्रित, अनादिनिधन और अखण्ड स्वत सिद्ध स्वरूप के साथ तन्मयता को प्राप्त आत्मा की विकल्पातीत स्थिति को ही समयसार के रूप मे वस्तु तत्त्व समझना चाहिये । 1 इस प्रकार वस्तु का व्यवहार धर्म भी जब निश्चय धर्म के समान वास्तविक ( सद्भूत ) सिद्ध हो जाता है तो इससे यह निर्णीत हो जाता है कि प० फूलचन्द्रजी ने व्यवहार के अर्थ को केवल कल्पित, मिथ्या या कथन मात्र के रूप मे उपचरित मान कर जीव के साथ कर्म और नोकर्म के बद्धतारूप सयोग को जो उपचरित अर्थात् कल्पित, मिथ्या का कथन मात्र मान लिया है वह असंगत ही है । कारण कि जीव के साथ कर्म और नोकर्म का बद्धता रूप सयोग पराश्रितता के रूप मे उपचरित होने पर भी सभूत ही है । इतना अवश्य है कि वह पराश्रित होने के कारण स्वाश्रित तादात्म्य के समान निश्चयरूप न होकर व्यवहाररूप ही है । अर्थात् प्रकृत मे उपचार का अर्थ
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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