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________________ १८१ चाहते हैं तथा व्यवहार धर्म को भी अधर्म की तरह सर्वथा ससार का कारण बतलाकर उसके महत्व को समाप्त कर देना चाहते है उनकी इस तरह की मान्यता से विवेकीजनो का भयभीत होना उचित ही है। क्योंकि जनसाधारण "हेये स्वय सती बुद्धिर्यत्नेनाप्यसती शुभे" इस नीति वाक्य के अनुसार स्वभाव से ही पाप प्रवृत्तिरूप व्यवहार मे सर्वदा रुचि रख रहा है। इसलिये उसकी दृष्टि मे पाप प्रवृत्तिरूप व्यवहार मे और पुण्य प्रवृत्तिरूप व्यवहार मे तथा कषाय का क्षयोपशम हो जाने पर उत्पन्न कथचित् निवृत्तिरूपव्यवहार जिसे व्यवहारधर्म नाम से आगम मे पुकारा गया हैमे यदि अन्तर समाप्त हो जाता है तो लोक मे व्यवहारधर्माचरण के साथ-साथ शुभ प्रवृत्तिरूप पुण्याचरण की समाप्ति होकर केवल अशुभ प्रवृत्तिरूप पापाचरण का ही बोलवाला हो जायगा। क्योकि जनसाधारण का इन सबसे युगपत् छुटकारा पाकर सर्वथा निवृत्यात्मक निश्चयधर्म मे पहुँच जाना सम्भव नही है । अर्थात् आगम की व्यवस्था यह है कि पापप्रवृत्तिरूप व्यवहार के यथायोग्य त्याग के साथ पूण्यप्रवृत्तिरूप व्यवहार को अपनाना उत्तम है और आगे अशक्ति, आवश्यकता और कर्तव्यवश पाप और पुण्य प्रवृत्तिरूप व्यवहार को अपनाते हुए भी यथाशक्ति कथचित् निवृत्तिरूप व्यवहारधर्म को स्वीकार करना उत्तम है, कारण कि इस क्रम से ही अन्त मे सर्वथा निवृत्तिरूप निश्चयधर्म पर पहुंचा जा सकता है। उपर्युक्त सभी बातो पर विस्तृत प्रकाश डालने की आवश्यकता है अत निश्चय और व्यवहार की स्थिति क्या है ?, किस प्रकार का व्यवहार सर्वथा हेय है ?, किस प्रकार का व्यवहार हेय होकर भी कहाँ तक उपादेय है ?, किस प्रकार का व्यवहार यथास्थान अपने आप छूट जाता है उसे छोड़ने का
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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