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________________ १४६ पद्य मे यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार की गई है कि आत्मा मे उत्पन्न होने वाले रागादि की उत्पत्ति कर्मरूप से परिणत पूदगल का आत्मा के साथ होने वाला सग्लेपस्पसम्बन्ध ही निमित्त है। इस तरह कहा जा सकता है कि कर्म और आत्मा का संश्लेपरूप सम्बन्ध वास्तविक (सद्भावात्मक) ही है अत उसे कल्पित (अभावात्मक) नही माना जा सकता है । स्वय आचार्य कुन्दकुन्द ने भी समयसार सर्वविशद्धज्ञानाधिकार मे सश्लेप सम्बन्ध को सद्भावात्मक ही स्वीकार किया है । यथा "चेदा दु पयडियट्ठ उप्पज्जइ विणस्सदि । पयडीवि चेययठ्ठ उप्पज्जदि विणस्सदि ॥३३२॥ एव वधोदु दुण्हपि अण्णोरगप्पच्चया हवे । अपणो पयडीए य ससारो तेण जायदे ।।३।। अर्थ-चेतयिता ( आत्मा ) प्रकृति (पुद्गलकर्म ) का निमित्त पाकर उत्पन्न विनष्ट होता है और प्रकृति भी आत्मा का निमित्त पाकर उत्पन्न और विनष्ट होती है । इस तरह आत्मा और प्रकृति दोनो ही एक-दूसरे के साथ वन्ध (सग्लेषणरूप सम्बन्ध ) को प्राप्त हो रहे है तथा इस वन्ध से ही आत्मा और प्रकृति का ससार निर्मित होता है। इसी तरह के और भी बहुत से प्रमाण आगम ग्रन्थो मे मिलते हैं जिनसे उक्त वन्ध की सद्भावात्मकता ही सिद्ध होती है। इस तरह आगम का विरोध होने से प्रकृत मे उपचरित शब्द से कर्म और आत्मा के सश्लेषरूप सम्बन्ध को अभावात्मक स्वीकार करके उसका कल्पित सद्भाव मानना उचित नही है । (२) दूसरी आपत्ति यह है कि कर्म और आत्मा के संश्लेपरूप सम्बन्ध को अभावात्मक स्वीकार करके उसका
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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