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१२२ ही ऐसा है और स्वभाव कभी तर्क का विषय नही होता है इसलिये इसमे तर्क-वितर्क नही करना चाहिये।
अशुद्धिशक्ति की व्यक्ति अनादि है और शुद्धिशक्ति की सादि है-इसका स्पष्टीकरण प्रकृत पद्य की अष्टसहस्री टीका की टिप्पणी मे निम्न प्रकार पाया जाता है।
"अशुद्धत्वमनादित एव मन्तव्य सादित्वे मते सति तत पूर्वं शुद्ध सभवापत्ते । शुद्धिस्तु न जीवाना पूर्वत , पूर्वत शुद्धि स्वीकारे पुनर्वधासभवापत्ते । न च बन्धो नास्तीति, प्रत्यक्षतो बन्धकृते शरीरादि पारतत्र्यम्यानुभावात् । इति बन्धस्याशुद्ध दशाया मेव सभवादनादिरशुद्धि । शुद्धिस्तु प्रयोगजन्यत्वात्सादि । कनकपाषाणगत सुवर्णस्याशुद्धिरनादिस्तच्छुद्धिस्तु सादिरिति दृष्टान्तोऽत्रमावनीय ।"
( अष्टसहस्री पृष्ठ २७५ टिप्पणी-५) अर्थ-अशुद्धशक्ति की व्यक्तिरूप अशुद्धि का सद्भाव अनादिकाल से ही मानना चाहिये क्योकि यदि उसे सादि माना जाता है तो उससे पूर्व वहा हमे शुद्धि का सद्भाव स्वीकार करना होगा, लेकिन अशुद्धिशक्ति की व्यक्ति के पूर्व शुद्धि का सद्भाव जीवो मे नही माना जा सकता है क्योकि अशुद्धि शक्ति की व्यक्तिरूप अशुद्धि के पूर्व जीवो मे शुद्धि के स्वीकार करने पर फिर बन्ध का होना असम्भव हो जायगा और ऐसा है नही, कि उनमे बन्ध का सर्वथा अभाव ही मान लिया जाय, कारण कि बन्ध के फलस्वरूप शरीरादि की परतत्रता का जीव मे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। इस प्रकार बन्ध की उत्पत्ति अशुद्ध दशा मे ही सम्भव होने से अशुद्धि शक्ति की व्यक्ति रूप अशुद्धि अनादि ही सिद्ध होती है और चूकि शुद्धि शक्ति की व्यक्तिरूप