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________________ १२० शुध्यशुद्धो पुन शक्ती ते पावयापाक्य शक्तिवत् । साधनादी तयो व्यक्ती स्वभावोऽतर्क गोचर. ॥१०॥ अर्थ-ससारो जीवो मे यथा सम्भव विद्यमान उपर्युक्त शुद्धि और अशुद्धि नाम की दोनो शक्तियो को मूग अथवा उडद मे यथा सम्भव विद्यमान पाक्य और अपाक्य-इन दोनो शक्तियो के समान समझना चाहिये। इन दोनो शुद्धि और अशुद्धि नाम की शक्तियो मे से शुद्धि शक्ति की व्यक्ति (विकास) तो सादि है तथा अशुद्धि शक्ति की व्यक्ति (विकास) अनादि है और यह सव व्यवस्था स्वभावभूत होने से तर्क का विपय नही है । इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मूग अथवा उडद के किसी-किसी दाने में तो स्वभावत पाक्य शक्ति और किसीकिसी दाने मे स्वभावत अपाक्य शक्ति पायो जाती है उसी प्रकार समस्त ससारी जीवो मे से किसी-किसी ससारी जीव मे तो स्वभावत शुद्धि शक्ति का सद्भाव और किसी-किसी ससारी जीव मे स्वभावत अशुद्धि शक्ति का सद्भाव जानना चाहिये तथा जिस प्रकार मग अथवा उडद के जिस दाने मे स्वभावत पाक्य शक्ति पायी जाती है उस दाने मे अपाक्य शक्ति नही पायी जाती है और मग अथवा उडद के जिस दाने मे स्वभावत अपाक्य शक्ति पायी जाती हे उस दाने मे पाक्य शक्ति नही पायी जाती है उसी प्रकार जिस ससारी जीव मे स्वभावत शद्धि शक्ति विद्यमान है उसमे अशुद्धि शक्ति का और जिस ससारी जीव मे स्वभावत. अशुद्धि शक्ति विद्यमान है उसमे शद्धिशक्ति का अभाव जानना चाहिये। इतना ही नही, जिस प्रकार नियत मूग अथवा उडद के दाने मे स्वभावत विद्यमान पाक्य शक्ति की व्यक्ति ( पकी हुई अवस्था में पहुँच जाना) सादि है व नियत मूग अथवा उडद के दाने मे स्वभावत
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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