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(३) तीर्थकर की दिव्यध्वनि और उनके ज्ञान मे कार्य- . कारण सम्बन्ध नहीं है।
(४) जीवद्रव्य पर किसी भी परद्रव्यका प्रभाव न मानकर इस वर्ग ने देव, शास्त्र और गुरुओ से लाभ एव मादक द्रव्यो के जीवपर प्रभाव को भी अस्वीकार किया है।
(५) महर्षि अमृतचद ने स्वाश्रित के निश्चय तथा पराश्रित.को व्यवहार माना है तथा जब यह वर्ग जीवपर कर्म के प्रभाव को ही नही मानता तब इसकी मान्यता मे व्यवहारका स्थान ही सभव नही है किन्तु आचार्य परम्परा मे जिसको व्यवहार माना गया है उस हो के आधार से यह वर्ग अणु व्रत, महाव्रत, त्याग और तपादिक को रागरूप मानकर उनको सवर और निर्जरा का कारण न मानकर केवल आश्रव
और बधका ही कारण मानता है और इस प्रकार इस वर्ग ने व्यवहार मात्र को हेय एव त्याज्य बतलाया है।
(६) इस प्रकार इस वर्ग ने द्रव्योको परस्पर निरपेक्ष मानकर द्रव्यो तथा सप्ततत्त्वोके लोपका प्रसग उपस्थित किया है तथा परिणमन को क्रमनियत मानकर पुरुषार्थ के अभाव का प्रसग उपस्थित किया है उसही प्रकार व्यवहार को हेय तथा त्याज्य बतलाकर महावीर परम्परा मे चले आरहे मोक्षमार्ग के लोपकी समस्या भी उत्पन्न करदी है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस' नवोदित वर्ग की तत्त्व मान्यता एव आचार मान्यता दोनो ही महावीर परम्परा के आचार्योंकी मान्यता से मेल नही खाती। इस प्रकार यह एक ऐसा वर्ग है जिसने महावीर के शासन का नाम लेकर उसके