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________________ X1 उपादान और निमित्त दोनो ही कारणो को स्वीकार किया गया है यह भी स्पष्ट है कि छह द्रव्यो मे से जीव और पुद्गलको छोडकर शेष चार द्रव्य शुद्ध ही रहते है, जीव और पुद्गल को ही शुद्ध और अशुद्ध स्वीकार किया गया है इन दोनो की अशुद्ध अवस्था हो इनकी पराधीन स्थिति है इससे स्पष्ट है कि ये दोनो ही सत्ताके दृष्टिकोण से स्वतत्र होने पर भी स्थिति की द्रष्टिसे पराधीन हैं । जीव द्रव्य की ऐसी स्थिति तबतक रहती है जब तक वह ससार मे रहता है अर्थात् ससारीजीव हो पराधीन है और मुक्त जीव चारो शुद्ध द्रव्योकी तरह स्वाधीन है। इस पराधीनता का नाम ही ससार और इससे छूटने का नाम ही मोक्ष है, जीव को यह स्वाधीनता अर्थात् मोक्ष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र से प्राप्त होती है, तथा इस ही लिए ये मोक्षमार्ग कहलाते है जब तक मोक्षमाग अपूर्ण रहता है अर्थात् साधन के रूपमे रहता है वह व्यवहार मोक्षमार्ग कहलाता है और जब वह पूर्ण हो जाता है अर्थात् ससारी जीव मुक्त हो जाता है तब वही मोक्षमार्ग पूर्ण मोक्षमार्ग हो जाता है इस ही का पडित प्रवर टोडरमल जी ने मगलमय और मगलकरण के रूपसे कथन किया है, जोवद्रव्य के पराधीनता से छूटकर स्वाधीन होने के मार्ग को व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग को साधन और साध्य के रूपमे महावीर परम्परा की सब ही शाखाओ ने एक स्वर से स्वीकार किया है उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट है कि जहाँ तक तत्त्वज्ञान की बात है महावीर के अनुयायियो मे भेद और प्रभेद होने पर भी तत्त्वज्ञान की दृष्टि से वे सब ही एक मत है इनमे अन्तर तो केवल आचार मार्ग मे ही हुआ है और वह भी केवल मुनि मार्ग तक ही। जहाँ तक ग्रहस्थाश्रम की बात है. महावीर परम्परा के सब ही अनुयायी एक मत हैं ।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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