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________________ ६३ प्रमाण रूप से स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन मे दर्शन को अविसवादी रहते हुए जो प्रमाण नही माना गया है इसका कारण यह है कि वह स्वपरव्यवसायी नही है और ज्ञान चू कि स्वपरव्यवसायी होता है अत उसे जैन-दर्शन मे प्रमाण माना गया है व जो ज्ञान स्वव्यवसायी होकर भी परव्यवसायी नही होता उसे जैन-दर्शन मे अप्रमाण माना गया है । जैसे घट के सद्भाव में यह तो निश्चित समझना चाहिये कि दर्शन घट का ही होगा कारण कि जव आत्मप्रदेशो मे पदार्थ का प्रतिविम्व पडने को दर्शन पूर्व मे निर्णित किया जा चुका है तो यह तो हो नही सकता कि घट के 'सद्भाव 'आत्मप्रदेशो मे प्रतिविम्ब घट का न पड़कर किसी अन्य पदार्थ का पड जावे । अब यदि उस अवसर पर ज्ञान भी घट का होता है तो वह ज्ञान स्वपरव्यवसायात्मक होने से प्रमाणरूप ही होगा । इसी प्रकार शीप के सद्भाव मे भी यह निश्चित है कि दर्शन उपर्युक्त प्रकार शीप का ही होगा परन्तु उस अवसर पर यदि चाँदी का ज्ञान हो जावे तो उस ज्ञान मे स्वव्यवसायात्मकता रहते हुए भी चू कि परव्यवसायात्मकता का अभाव है अत वह ज्ञान भ्रमरूप मे अप्रमाण कहा जायगा । इसी प्रकार शीप के सद्भाव मे उपर्युक्त प्रकार यह तो निश्चित है कि दर्शन शीप का ही होगा परन्तु उस अवसर पर यदि " शीप है या चॉदी" इस प्रकार दुलमिल ज्ञान हो जावे तो उस ज्ञान मे भी स्वव्यव - सायात्मकता रहते हुए भी चूकि परव्यवसायात्म का अभाव है अत वह ज्ञान भी सशय रूप मे अप्रमाण कहा जायगा । इसी प्रकार किसी वस्तु के सद्भाव मे यह तो निश्चित है कि दर्शन उसी वस्तु का होगा जिसका वहाँ सद्भाव होगा परन्तु वहाँ पर यदि ऐसा ज्ञान होता है कि "यहाँ मुझे किसी वस्तु का
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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