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पुकारा गया है इसकी भी संगति हो जाती है जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है।
__ ऊपर दर्शन का जैसा स्वरूप निर्धारित किया गया है उसमे ज्ञान की तरह प्रमाणता अथवा अप्रमाणता का रूप नही पाया जाता है और यह बात मैं पहले ही बतला चुका हूँ कि स्वपरव्यवसायात्मकता प्रमाणता का तथा स्वव्यवसायात्मकता के सद्भाव मे परव्यवसायात्मकता का अभाव अप्रमाणता का चिन्ह है जिनका कि दर्शन के पूर्वोक्त स्वरूप मे अभाव पाया जाता है । तात्पर्य यह है कि दर्शन के पूर्वोक्त स्वरूप मे पदार्थ का अवलम्बन होने के कारण वह पदार्थ ग्रहणरूप तो है परन्तु वह न तो स्वपरव्यवसायात्मक है और न केवल स्वव्यवसायात्मक ही है अत उसे सामान्यग्रहण शब्द से पुकारना उचित ही है चूकि प्रमाणज्ञान स्वपरव्यवसायी होता है और अप्रमाणज्ञान परव्यवसायी न होकर भी स्वव्यवसायी तो होता ही है अत प्रमाणज्ञान और अप्रमाणज्ञान दोनो को विशेपग्रहण शब्द से पुकारना उचित है। दर्शन को आगम मे जो निराकार कहा गया है वह भी उचित है क्योकि ऊपर दर्शन का जो स्वरूप निर्धारित किया गया है उसमे स्वपरव्यवसायात्मकता का अभाव रहने के कारण प्रमाणता का और परव्यवसायात्मकता के अभाव के साथ स्वव्यवसायात्मकता का भी अभाव रहने के कारण अप्रमाणता का भी आकार नही पाया जाता है। आगम मे दर्शन को जो अव्यवसायात्मक कहा गया है वह भी इस आधार पर उचित है कि ऊपर दर्शन को जो स्वरूप निर्धारित किया गया है उसमे न तो प्रमाणज्ञान की तरह स्वपरव्यवसायात्मकता पायी जाती है और न अप्रमाणज्ञान की तरह केवल स्वव्यवसायात्मकता ही पायी जाती है। इसी प्रकार