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________________ दह दर्शनोपयोग के आधार पर ही ज्ञानोपयोग होता है तो कहा जा सकता है कि सर्वज्ञ के समस्त दर्शनावरण और समस्त ज्ञानावरण कर्मो का एक साथ क्षय हो जाता है इसलिए समस्त प्रतिक्षण स्वभावत उसके आत्म- प्रदेशो मे प्रतिविम्बित होते रहते है और तब स्वभावत ही उसे प्रतिक्षण समस्त पदार्थों का ज्ञान सतत होता रहता है । मति ज्ञानी जीव के आत्म प्रदेशो मे पदार्थ का प्रतिविम्बित होना दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम के साथ ही इन्द्रियाधीन है अर्थात् उसके आत्म-प्रदेशो मे पदार्थ का प्रतिविम्व इन्द्रियो द्वारा ही पहुँचता है और यह नियम है कि एकेन्द्रिय जीव के एकस्पर्शन इन्द्रिय का, द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियो का, त्रीन्द्रियजीव के स्पर्शन, रसना और नासिक इन तीन इन्द्रियो का चतुरिन्द्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, नासिका और नेत्र इन चार इन्द्रियो का असज्ञी पचेन्द्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँचो इन्द्रियो का और सज्ञी पचेन्द्रिय जीव के उक्त पाँचो इन्द्रियो के साथ मन का भी सद्भाव अपने-अपने दर्शनावरण और मति ज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशन के अनुसार रहा करता है और यह भी नियम है कि स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा स्पर्श के रूप में, रसनेन्द्रिय द्वारा रस के रूप में, नासिकेन्द्रिय द्वारा गन्ध के रूप मे, नेत्रेन्द्रिय द्वारा वर्ण के रूप में, कर्णेन्द्रिय द्वारा शब्द के रूप मे और मन के द्वारा अपने सामान्य रूप मे पदार्थ आत्म-प्रदेशो प्रतिविम्बित होता है तथा यह भी नियम है कि मति ज्ञानी जीव के उपर्युक्त नाना इन्द्रियो का सद्भाव एक साथ रहते हुए भी क्रमिक होने के कारण जिस अवसर पर किसी एक इन्द्रिय द्वारा पदार्थ आत्मप्रदेशो मे प्रतिविम्बित होता है उस अवसर पर किसी अन्य इन्द्रिय द्वारा पदार्थ आत्म-प्रदेशो मे प्रतिविम्बित नही होता अत कहा जा सकता है कि मतिज्ञानी जीव के जिस
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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