________________
७३
गुरु कात्यायन तुम मेरी नहीं बनीं। कात्यायन जैसे संसार को बढ़ाते हैं। मधुसूदन जैसे सब हों तो जगत् की मुक्ति न हो जाय ? इससे सृष्टि के हित में मैं यही कर सकता हूँ कि मधुसूदन बनने का बिरलों को साहस हो । सब कात्यायन बनने की स्पर्धा करें। पढ़ें और पढ़कर तर्क को पैना करें और जुबान को धार दें, इससे कि सामने कोई न ठहर सके और स्नेह जल जाय । यह स्नेह ही संहार को बुझाता है दर्प उसको भड़काता है। ये स्नेह और भक्ति किसी तरह मिटें तो मैं सब देवताओं से कहूँ कि लो, देखो, तुम्हारी सृष्टि कैसी प्रलय में ध्वंस हो रही है। पार्वती, ये गर्वोद्धत वाग्मी विद्वान् जगत् में सार्थक हैं, क्योंकि कलह सार्थक है। ताण्डव तो मुझे प्रिय है, पार्वती। प्रलय में ताण्डव की शोभा है।"
यह कहते समय पार्वती के समक्ष भगवान् का वही रूप आया जिस पर वह मुग्ध हैं। पर उस रूप से वह डरती भी हैं।
शङ्कर ने पार्वती को मुग्ध और सभीत अवस्था में देखा तो स्मित हास्य से बोले, “पर क्या करूँ पार्वती, श्रादि में ही मैं हारा हुआ हूँ। तुम डर कर मुझ में स्नेह जगा देती हो। यही तो है जिससे विष्णु के आगे मुझे झुकना होता है। पार्वती भक्त मधुसूदन विष्णु की रक्षा में है । पराजय में भी वह रक्षित है । कात्यायन उसे जीत सकता है, पर उसे पा कहाँ सकता है ? तुम कैसी भोली हो पार्वती कि मेरे आगे होकर जो श्रादि देव हैं उनको अपने से ओझल होने देती और कात्यायन पर रोष करती हो । कात्यायन अधिक के योग्य नहीं है। इससे जितना मिलता है उतना तो उसे मिलने दो। जग की मान-बड़ाई से अधिक वह पा नहीं सकता । बेचारा उतने में अपने को भूल भी सकता है। ऐसे प्रभागे को मुझ से और क्यों वन्चित करने को कहती हो ?"