________________
जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] नहीं तो आसन से चिपकेगा, तो वही न बन्धन हो जायगा, क्यों रे ?" ___ इन्द्र ने कहा, "भगवन्, मैं मूढ-बुद्धि हूँ, समझा कर कहें।"
नारदजी बोले, “वुद्धि तुझ में कहाँ है, जो मूढ़ तू हो रे निर्बुद्धि ? यह कैसी बात करता है । सन्त को अजेय समझता है ? यही तो तेरे इन्द्रत्व की मर्यादा है। निस्पृह को भी स्पृहा है रे पागल ! जा सन्त को सेवा से जीत । अभिमान रखके किसी का मान तोड़ा जा सकता है, रे! पर जिसके पास मान नहीं है वहाँ
आँसू लेके जायगा तभी जीतेगा। सन्त की स्पृहा को तू नहीं जानता है, रे मूढ़ ! त्रिभुवन का दर्प उसे शून्यवत् होता है और गलित मान की एक बूंद में वह डूब जाता है । यह नहीं जानता है, रे असावधान, तो ऊपर बैठ-बैठ कर अपने नीचे इन्द्रासन की भी तू रक्षा नहीं कर सकेगा । सुनता है ?"
इन्द्र ने कहा, "भगवन्, यही करूँगा।"
"करेगा क्या मेरे लिये, रे इन्द्रासन की चिन्ता होगी तो श्राप ही सन्तों के आगे झुकता फिरेगा। इसमें मुझसे क्या कहने चला है ? मैं क्या किसी का बोझ लेता फिरता हूँ, रे मनचले ?"
कहकर नारद वहाँ से चल दिये।
इन्द्र ने तब प्रसन्न भाव से कहा, "शची, श्राश्रो चलो, मानव से अपना आशीर्वाद पाने चलें।"
शची, "रति को साथ लेना है ?" इन्द्र. "नहीं, हम दोनों ही चलेंगे।" शची मुग्ध भाव से साथ हो ली।