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ऊर्ध्वचाहु
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ऐसा चढ़ जाय कि फिर कुछ उन्हें रोकने के लिये ही न रहे ? पर वह अपने में कुछ भी अलग न पकड़ सके, कुछ भी उत्तर न पा सके। मुहूर्त्त-भर तुमुल द्वंद्व उनके भीतर मचता रहा । मानो उन्हीं के पाताल देश से क्रुद्ध प्रभंजन उठ कर उन्हें झकझोरने लगा । उसके विस्फूर्जित आवेग में उनके संचित धारणा - संकल्प कहाँ टूटफूट कर रह गये हैं, मानो उन्हें कुछ पता नहीं चला ।
इस प्रलयान्तक मुहूर्त्त के बाद उन्होंने आँख खोली । नृत्य शांत था । किन्तु एक नहीं, असंख्य, अनन्त अप्सराएँ चतुर्दिक उनकी ओर देखती हुई मुस्करा रही थीं । मानो ऊर्ध्वबाहु की आज्ञा की ही प्रतीक्षा है ! और -
तपस्वी की दृष्टि में स्पृहा जागृत हुई। उन्होंने आँखें मलीं और और खोलीं। कहीं सब स्वप्न तो नहीं है ! पर देखा अपरूप शोभाशालिनी अनंगलताएँ उनकी ही ओर आ रही हैं— निकट आ रही हैं, निकट से और निकट आ रही हैं। इस रूप लावण्य के सागर के लिये उनके रोम-रोम से श्रामन्त्रण स्फुरित होने लगा। मुख की चेष्टा बदल गई और अनायास उनकी बाँहें आगे को फैल गई ।
किन्तु बाँह फैली ही रह गईं, कुछ उनमें न आया था । सब अनन्त विस्तृत दिशाओं की शून्यता में मिलकर खो गया था । ऊर्ध्वबाहु ने पाया, वहाँ बस वही है—व्यर्थ खण्डित और
एकाकी ।