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ऊध्वंबाहु और तत्क्षण चहुँ ओर मन्थर निक्षेप से रखे जाते हुए अनेक पगपायल के नू पुरों का किंकणन उसे सुनाई दिया। मानो अप्सराओं के समूह ठठ-के-ठठ यूथबद्ध होकर चतुर्दिशाओं में मृदु-मन्द नृत्यक्रीड़ा कर उठे हों।
ऊर्ध्वबाहु अचल-प्रण तपस्वी की भाँति मन-ही-मन सुरपति की माया-लीला पर व्यंग-भाव से मुस्कराये । वह जानते थे कि वह सुरपति को पराजित करेंगे। माया-राज का वह अधीश्वर इन्द्र परम पुरुष परब्रह्म के द्वार पर लुब्धक प्रहरी के समान निषेध-मूर्ति बन कर जो बैठा हुआ है, उसको बलात् वहाँ से पदच्युत कर भगवदशेन के द्वार को उन्मुक्त कर देना होगा ।...
कि तभी नूपुरों की मन्द-मन्द ध्वनि उत्तरोत्तर दूत होने लगी। होते-होते मानो एक तीव्र उत्तेजना में उन्मत्त भाव से वह ध्वनि निकट आकर रक्ताक्त मदिरा-फेन के समान उफनती हुई थिरकने लगी। क्रमशः असंख्य नूपुरों का वह स्वर समवेत होकर लहकती ज्वाला की भाँति कर्ण-कुहरों से होकर तपस्वी के भीतर पिघलता हुआ उतरने लगा। ऊर्ध्वबाहु को इस पर क्रोध हो आया । मुझ में बिना मेरी अनुमति प्रवेश करने वाली तरलाग्निवत् यह राग वस्तु क्या है ? मेरे निकट यह कौन उसे उत्थित करने का साहस कर रहा है ? क्या उसे जीवन की कांक्षा नहीं है ? कौन इस प्रकार मेरे शाप में भस्म होने को यहाँ आ पहुँचा है ? यह धार कर क्रुद्ध भाव से तपस्वी ऊर्ध्वबाहु ने अपने नेत्र खोले। .
देखा, चिबुक पर तर्जनी रखे एक रूपसी मानो नृत्य के बीच में सहसा अवसन्न होकर उनकी ओर कौतुक से देख रही है । उसी समय उनके भीतर गहरे में कोई फूलों की चोट दे गया । वृक्ष की ओट में पुष्पधनु का सन्धान किये पंचशर अवसर देखते ही थे।