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પહે
वह साप हुआ, तब उसके ऊपर सँपेरे के मुंह से लगी बीन बज रही थी। और उसके भीतर से उठ रहा था कि हे भगवान् !
इसी भाँति वह सुन्दर वन्य सर्प अपना जहर खोकर, क्रोध में जलकर, निष्फलता की अनुभूति में घुलकर शिथिल, निष्प्राण, निष्परिणाम मृतप्राय होता चला गया। तब तक, अब तक मौत उसे छुटकारा दे। ___ "तो क्या विष ही मेरा बल था ?" साँप सदा सोचा किया, और कहा किया- "हे भगवान् !"