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वह बेचारा
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क्रोध मुझे आ जाता है, लेकिन मैं किसी का अनिष्ट करना नहीं चाहता । तैने मुझ में यह क्या विष रख दिया है कि मैं जरा मुँह छूता हूँ कि दूसरे की जान चली जाती है ! उस देवोपम बालक का अनिष्ट क्या मैं तनिक भी सह सकता हूँ ? मेरे परमात्मा ! अपना यह विष तू मुझ में से ले ले । हाय ! यह मेरा वश क्यों नहीं है | कि मैं यदि क्रोध से नहीं बच सकता तो दूसरे की जान लेने से तो बचूँ । किन्तु तैंने तो मेरे मुँह में ही महाकाल बैठा दिया है। तू यह जहर मुझ में से खींच ले ।
अगले दिन परमात्मा का भेजा हुआ एक सँपेरा वहाँ आ निकला । उसके हाथ में झोली थी । वह जंगल में आया और बैठ कर बीन बजाने लगा । साँप बीन की वैन में बँधा हुआ सँपेरे के सामने पहुँचा और फण खोल कर मोहमुग्ध, वहाँ खड़ा रह गया । बीन में फूँक फेंकता हुआ सँपेरा उसे बजाता ही गया और साँप अधिकाधिक ग्रस्त भाव से फण हिला-हिलाकर उसमें विभोर होता गया । इसी भाँति उसके फण के आगे बीन बजती रही और सर्प हतचेत, मानो कृतज्ञ, अपने को सँपेरे के हाथ में देता गया । सँपेरे ने आश्वस्त प्रेम के भाव से उसे शनैः शनैः पूरी तरह काबू में कर लिया ।
जब उसके ज़हर के दाँत उसके मुँह में से खींचकर सँपेरे ने निकाले तब वह सर्प पीड़ा से मूर्छित हो रहा था । उस पीड़ा में भी, जब तक वह एकदम चेतनाशून्य ही नहीं हो गया तब तक, साँप सँपेरे का आभारी ही बना रहा । इसके लिए मानो वह उसका ऋणी ही बना था कि उसे पीड़ा देकर यह व्यक्ति उसमें से उसके अनिच्छित अंश को बहिष्कृत कर दे रहा है। मूर्छित सर्प को अन्त में झोली में डालकर सँपेरा नगर की ओर चल पड़ा ।