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वह बेचारा
एक वन की घोर आच्छन्नता में एक साँप रहता था । विकराल और सुन्दर, वह अन्य वनचर जन्तुओं में एक साथ ही भय और मोह उपजाता था । उसकी काली देह पर मानो नक्काशी का काम हो रहा था और फण पर तो जैसे मणियाँ ही टॅकी थीं । यह सर्प बड़ा विषधर भुजंग था, किन्तु वह अपने भीतर के मन से बड़ा भला भी था । क्रोध के समय उसकी गर्म सिसकारी से आस-पास की घास भी जल जाती थी। किन्तु अन्यथा वह अलग-भाव से अपने स्थान पर ही पड़ा रहता था । और तब कीड़े-मकोड़े तक को उसकी देह के साथ क्रीड़ा करते हुए संकोच न होता था।
उसी अरण्य में अकस्मात् एक रोज़ खेलता हुआ एक देव बालक आन पहुँचा । वह किलकारी भरता हुआ उछाह से भागा चला जा रहा था। उछाह ही उछाह था, शंका की छाया उसके मन के आस-पास भी कहीं नहीं थी। बालक अनुपम सुन्दर था । उसके हाथ में वंशी थी, जिसको वह गिल्ली के डंडे की तरह सहज भाव से पकड़े घुमाता हुआ जा रहा था। मालूम नहीं, वह बालक इस
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