________________
१६८
जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
..
को उठते जाना है। सो एक दिन यह हुआ कि युवराज को बताया गया कि वह अनावश्यक हैं। परम्परागत भाव से उनके नाम के साथ जो प्रतिष्ठा और महिमा लगी हुई थी, वह अवश्य - शासन कार्य में सहायक होती थी, पर अब उसकी आवश्यक ता नहीं है । सेनाध्यक्ष और न्यायाध्यक्ष के नामों में भी अब उसी प्रकार की प्रतिष्ठा है । आपके लिये कोई विशेष विभाग नहीं है, आप तो प्रतीक मात्र हैं। अब शासन किसी प्रतीक पर निर्भर नहीं है । साथ ही उस प्रतीक को रखने में राज्य को बहुत व्यय करना पड़ता है । सबसे पूर्व विशिष्ट और लोकोत्तर रूप देकर राजा को रखना आवश्यक होता है, अपने समकक्ष किसी राजा को प्रजा सह नहीं सकती । इससे जनता अपना पेट काट कर ऐसे राजा को पालती है, कि उसका वैभव देखकर वह स्वयं विस्मित हो सके और गद्गद होकर उसकी जय बोल उठे । राज्य परम्परा ने यह दैन्य प्रजाजन में गहरा बिठा दिया है । युग अब आडम्बरहीन लोक- तन्त्र का है । इससे अन्य त्याग पत्र देदें । हम सभा की ओर से आपके परिवार के लिए एक वृत्ति बाँध देंगे, जिससे निर्वाह में आपको अभी कठिनाई न हो, आगे
युवराज ने कहा, "मैं अवश्य त्याग-पत्र दूँगा और वृत्ति की भी श्रावश्यकता नहीं है। हम सबके ही एक पेट है, दो हाथ हैं । इसलिए हमारी जीविका की भी चिन्ता आप न करें। यदि राज्यपरम्परा आज अनावश्यक है तो उसका अवशेष भी बचाए रखने का लोभ न करें ।”
राजगुरु ने कहा, "यह कैसे होगा ? जनता तुम्हें विशिष्ट मानती आई है । तुम अपनी इच्छा से साधारण बनोगे तो भी अपनी आदत से लाचार जनता तुम्हें विशिष्ट ही मानेगी। बल्कि