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________________ काल- धर्म १६५ है कि मैं उस दुस्संयोग को टाल सकूँगा, या उठने पर दबा सकूँगा । उसी भाँति राजगुरु को निश्चय है कि राज्य का मंगल इसी में है कि पूरी शासन- नीति उनके हाथ में हो। इसमें सन्देह नहीं कि जनता पर उनका बहुत प्रभाव है । उनका वाक्-बल-प्रभूत है और उनमें संयोजक शक्ति भी है। जनता में उनका समर्थक दल जबर्दस्त है । गुरुजन मुझ से किसी प्रकार की शत्रुता रखने के कारण ही ऐसा सोचते हैं, यह मैं कैसे कह सकता हूँ। अभी तक वे मुझ पर प्रीति ही रखते आए हैं। इससे तुम किसको शत्रु देखती हो, और किसके दमन का परामर्श देती हो ?" रानी ने तेजस्वी वाणी में कहा, "उनको, जो तुम्हें हीन मानते हैं। क्या चक्रवर्ती महाराज विजयभद्र के तुम ही एकमात्र पुत्र नहीं हो ? इससे राज्य भी तुम्हारा है । अपने प्रमाद में तुम उसे खो नहीं सकते ।” युवराज रानी की गरिमामय बात सुनकर हँसे । कहने लगे, “अनादि काल से तो कोई राजा होता नहीं प्राणाधिके, दूसरों को जीत कर एक दिन कोई राजा बन उठता है। मुझे जीत कर खड्गसेन राजा हो जायँगे तो उसके पुत्र के मुँह से क्या यह तर्क शोभा देगा ? तुम भी वैसी ही हँसी की बात कह रही हो। तुम में क्या भाव नहीं होता कि यदि कहीं राज-काज के मंझट से छुट्टी पाकर हम दोनों अपने प्रेम को ही सार्थक करने के अर्थ जीवित रह सकते ! शक्ति के पद पर बैठकर व्यक्ति को अपने प्रेम को सुखाते रहना होता है क्या तुम यह अनुभव नहीं करतीं ?" 4. रानी ने कहा, "कुछ-कुछ करती हूँ । लेकिन तुम्हें इस तरह हारने न दूँगी । क्या तुम्हीं विजयभद्र के पुत्र नहीं हो, जिन्होंने अपने बाहुबल से समस्त आर्यावर्त का चक्रवर्तित्व सिद्ध किया ? वन
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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