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काल-धमं
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धिपति खड्गसेन के पास जाकर युवराज ने कहा, "मैं राज- पद छोड़ने को तैयार हूँ, सेनानी ! आप राजगुरु से मिलकर यथा - योग्य सन्धि और परामर्श कर लें । प्रजा-जन में क्षोभ क्षण-क्षण बढ़ रहा है और किसी समय भी व्यवस्था भंग की आशंका है ।"
सेनाधिपति ने युवराज से कहा, "राज-गुरु से चाहें तो आप मिलें, मिल कर आप दोनों मुझे प्रमुख मानलें तो ठीक है । नहीं तो शस्त्र से निर्णय होगा ।"
सुनकर युवराज राज- गुरु के पास पहुँचे और उनसे भी यही कहा । राज- गुरु ने कहा, “राज्य मानव धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार चलना चाहिए, उन सिद्धान्तों का मेरे ग्रन्थ मानव - शास्त्र में परिपूर्ण प्रतिपादन है । तुम और सेनाधिपति आपस में मन्त्रणा कर लो । तुम में से जो मानव-धर्म के अनुसार चलने को तैयार हो और जनता के सामने उस शास्त्र के अनुसार एवं उसके प्रणेता की आज्ञा के अधीन चलने की शपथ ले, वही पक्ष मुझे मान्य है । क्या तुम उसके लिए तैयार हो ? राजा तुम भले रहो, पर समग्र राज - प्रकरण मुझ से चले ।”
युवराज ने कहा, "यशस्वी महाराज विजयभद्र सत्य शोध के लिए विजन वन में गए हैं, लेकिन मुझे यह बता गए हैं कि सत्य यद्यपि उन्हें प्राप्त नहीं है, तो भी उस सम्बन्ध में यह प्राप्त अवश्य है कि वह किसी शास्त्र में बँधा हुआ नहीं है । शासक को पुस्तक की ओर नहीं, प्रजा की ओर देखकर चलना चाहिए ।"
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राज- गुरु ने कहा, "तो मैं सेनाधिपति से पूछ देखूँगा । वह भी मानव धर्म शास्त्र के संरक्षण में आने में असमर्थ होंगे, तो मुझे तीसरे किसी योग्य व्यक्ति को देखना होगा । इस आर्य - खण्ड में राज शास्त्रानुकूल ही चल सकेगा ।"