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कामना पूर्ति
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सेठ के न समझने पर शिष्य ने बताया कि अपना सब धन छोड़ने पर तैयार न हो, तो महात्माजी की कृपा से फल पाओगे भी, तो इष्ट नहीं होगा ।
सेठ कहने लगा, “महात्मा की कृपा अनिष्ट नहीं होगी, और मैं खाली नहीं जाऊँगा ।"
महात्मा चुप रहे । तब शिष्य ने कहा, "सेठजी अब आप जा सकते हैं । महात्माजी की अप्रसन्नता विपता ला सकती है ।" किन्तु सेठ विफल होना नहीं जानते थे । वह वहीं माथा रगड़ने और गिड़गिड़ाने लगे ।
इस पर शिष्य सेठानी को अन्दर ले आया । उसे देखकर सेठ सँभल गये, और सेठानी माथा टेककर एक ओर बैठकर बोली, "महाराज, मुझ पर दया करो कि जिससे मेरी गोद सूनी न रहे।"
महात्मा ने कहा, "सम्पदा के भोग के लिए पुत्र चाहती हो ?” सेठानी ने प्रसन्न होकर कहा, “हाँ, महाराज !”
महात्मा बोले, "माई, भोग सब भगवान् का है। आदमी के पास यज्ञ है । उसका धन उसे दे डालो, फिर खाली होकर माँगोगी, तो वह सुनेगा ।"
सेठानी ने कहा, "देने के तो ये मालिक हैं, महाराज !"
सेठ कुशल व्यक्ति थे । बोले, "सेठानी, हम दोनों महात्माजी के चरण पकड़कर यहीं पड़े रहेंगे। कभी तो इन्हें दया होगी। मुखमण्डल पर नहीं देखती हो, स्वयं भगवान् की ज्योति विराजती है ।" यह कहकर सेठ और सेठानी दोनों साष्टाङ्ग गिर गये और महात्मा के चरण पकड़ने की कोशिश की। पर पैर को छूना था कि झटके से उन्होंने हाथ खींच लिये । मानो जीती बिजली से हाथ छू गया हो ।