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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग हवा सन-सन करके उसके कानों में से भाग जाती है। समुन्दर का हाहाकार चेतना को दबोच लेना चाहता है । काल आकर उसके सब-कुछ को मानो रौंदता हुआ उसके ऊपर से जाकर भी नहीं जाता, वह भागता हुआ भी उसके ऊपर डटा खड़ा है।
राजकन्या को लगता है, मानो एक अट्टहास कह रहा हो कि "श्रो राजकन्या, देख, चारों ओर सब खोखला है कि नहीं ? अरी
ओ, कुछ नहीं है, कुछ नहीं है । तेरे मन के भीतर का राग एक रोग है । मत बीत और मत अपने को बिता । राजकन्या, कहीं कोई नहीं है । धरती दूर है, बीच में समुन्दर सात हैं, और आने वाला राजपुत्र कहीं कोई नहीं है, कोई नहीं है । कह तो एक बार कि 'कोई नहीं है।' फिर देख कि वे सब किन्नरियाँ पलक मारने में मेरे पास आती हैं या नहीं। वह सब मेरी बाँदियाँ हैं।" द्वारा
राजकन्या पुकारना चाहती है कि "ओ ! मेरी सखियों को मुझे दे दो। पर जिसके लिए मैं हूँ, वह तो है, वह है। नहीं तो मैं नहीं हूँ।" ___ उसकी इस बात पर मानो अट्टहास और भी सहस्र-गुणित होकर उसके चारों ओर व्याप जाता है, मानो उसे लील लेना चाहता हो। ___ तब राजकन्या आँख मूंदकर, कान मूंदकर प्राणपण से भीतर ही कह उठती है, “तू है । नहीं आया है तो भी तू आ ही रहा है। तू आने के लिए ही नहीं पाया है। इस तेरी ठगाई में आकर मैं प्रातः-सन्ध्या तेरे आँगन को धोने में चूक करने वाली नहीं हूँ, श्री छलिया ! जो नहीं जाने वह नहीं जाने । पर क्या यह हँसने-वाला काल बली भी नहीं जानता है ? पर मैं जानती हूँ। सुन, ओ सुन, मैं और मेरी प्रतीक्षा, हम दोनों तुझ से टूटने के लिए ही टिके