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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] क्या हैं कि कुत्ता माँस का टुकड़ा चबा रहा है जिसके उच्छिष्ट कण दो-एक उनके बदन पर भी पड़े हैं।
इस पर सहसा क्रोध में आकर उन्होंने कुत्ते को लात से बेहद मारा और मारते-मारते अपने पास से दूर खदेड़ दिया।
कुत्ता चला गया और जिनराजदास उसी तरह अपनी जगह श्रा बैठे । उन्होंने सोचा कि अब ध्यान में कोई बाधा न होगी।
पर कुछ देर में आँख खोलकर उन्होंने इधर-उधर देखा कि कुत्ता आ तो गया है न, चला नहीं गया । पर वह नहीं आया था। यह उनको अच्छा नहीं लगा । लेकिन इस बात को मन से हटाकर वह अपने ध्यान में लीन हो गए। पर देखते क्या हैं कि आकाशस्थ जिस बिन्दु पर वह ध्यान जमाते हैं, वहाँ रह-रह कर कुत्ते का चित्र प्रकट होने लगा है । तब आँख बन्द कर अपने भीतर उन्होंने ध्यान जमाना चाहा । पर वहाँ भी बीच-बीच में कुत्ता प्रकट होने लगा। इस पर उन्हें बहुत बुरा मालूम हुआ और कुत्ते को कोसने को जी चाहा । पर जितना रोष बढ़ता, कुत्ता उनके भीतर-बाहर उतनी ही प्रबलता से उनके समक्ष और प्रत्यक्ष ही रहता। यहाँ तक कि कुछ पल टिककर आत्मध्यान में रहना उनके लिए कठिन हो गया । अन्त में निराश होकर उन्होंने तय किया कि उस कुत्ते को फिर से पाना होगा।
कुत्ता ज्यादा दूर नहीं गया था । वह एक हड्डी से चिपटो हुआ था । जिनराजदास को पास आते देख उसने गुर्राना शुरू किया।
जिनराजदास ने कहा, "चलो भाई, गलती हुई। मेरे साथ चलो ।"
इस पर कुत्ते ने दाँत दिखाए। मानों कहा, "और आगे न आना, नहीं तो मैं नहीं जानता। यह हड्डी मेरी है।"