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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
न हो कि कहीं यह वैरागी उठकर यहाँ से चल दे । लेकिन मंगलदास को यह ख्याल रहता था कि कहीं ये एकदम चंगे न हो जायँ कि उसके काबू से बाहर ही हो जायँ ।
होते-होते वैरागी अकेले पड़ गए और मंगलदास की कुटिया श्रद्धालु लोगों से भरी रहने लगी ।
अकेले पड़कर वैरागी की तबियत धीरे-धीरे ठीक होने लगी । एक दिन बहुत सवेरे कुछ दर्शनार्थी लोग मंगलदास के पास ये कि रास्ते में क्या देखते हैं कि थोड़ी थोड़ी दूर पर एक-एक अशर्फी पड़ी है । उनको बड़ा अचम्भा हुआ । उन्होंने सोचा कि जरूर इसमें कुछ मंगलदास की महिमा है । इसलिए आकर उन्होंने वे अशर्फियाँ मंगलदास के सामने रखीं और नमस्कार करके कहा कि- महाराज, आपकी ओर आते हुए रास्ते में ये शर्फियां हमको मिलीं । जरूर आपके दर्शनों के पुण्य का यह प्रताप होगा । इससे की भेंट हैं।
मंगलदास सुनकर कुछ नहीं बोला ! उसका माथा ठनक गया । उसने जान लिया कि वैरागी यहाँ से कहीं चला गया है । इसलिए लोगों के चले जाने पर चुपचाप उसने वैरागी को ढूँढना शुरू किया । पर आस-पास की अशर्फियाँ उठ ही गई थीं। इससे उसे कोई सहारा खोजने का नहीं मिला ।
तब अगले दिन सवेरे उसने गाँव वालों से कहा, "मैं कल मन्त्र का अभ्यास कर रहा था। उसके बाद जो हाथ में भस्म उठाई तो वह सोना बन गया । मालूम होता है वह जो बीमार वैरागी पास में रहता था रात को उन सोने के सिक्कों को चुरा कर भाग गया है । मैं तो सोचता था कि तुम लोगों को वे सिक्के बाँट दूँगा ।