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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] याद ही खतम हुई जा रही है। मंगलदास ने वैरागी के चरण पकड़ लिए। कहा, “महाराज की मुझ पर अदया क्यों है ?"
वैरागी ने कहा, "अगर संसार की तृष्णा नहीं है, तो सेवा की भी तृष्णा नहीं होनी चाहिए । ईश्वर तो सब कहीं है । तुम्हारे घर में नहीं है और ईश्वर यहाँ इस कुटिया में ही है, अगर मानते ऐसा हो तो तुम्हारी बड़ी भूल है। मेरी सेवा तुम करना चाहते हो तो क्या बतला सकते हो कि क्यों चाहते हो ?" __ मंगलदास, “महाराज, मुझे अपनी मुक्ति की इच्छा है। आपकी सेवा से मेरी मुक्ति का मार्ग खुल जायगा।"
वैरागी, "मुक्ति का मार्ग घर में रहकर अगर बन्द होगा तो उसे वन्द करने वाले तुम्हीं हो सकते हो। अन्यथा वह वहाँ भी खुला है । जाओ, मुझ को छोड़ो । मेरी सेवा अब भी तुम क्या कर सकते हो ? यह मेरा तन सेवा के लायक नहीं है। यह तन दूसरों के काम आ सके इसीलिए मैं धारण किये हुए हूँ। अगर तुम इसमें मोह रखोगे तो मेरा अपकार करोगे।"
लेकिन मंगलदास भक्ति-भाव से उनके चरणों में नमस्कार करके कहने लगा, “महाराज, मुझ पर अदया न करें। मैं तुच्छ संसारी जीव हूँ। मुझे फिर वापिस संसार के नरक में आप न भेजें।"
वैरागी फिर हँसने लगे। बोले, "जैसी तुम्हारी इच्छा । लेकिन आगे हर कष्ट के लिए तुम्हें तय्यार रहना चाहिए।"
अगर साधु के पास से अशर्फियाँ बराबर मिलती जाया करें तो कष्ट की गिनती करने वाला मंगलदास नहीं था। वह जानता था कि एक बार कष्ट उठाकर अगर बहुत-सा धन हाथ आ जायगा तो जन्म-जन्म के संकट उसके दूर हो जायँगे । दुनिया में सोना ही