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लाल सरोवर
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हुए रहते हैं। मैं अब इस संसार में राग नहीं रखना चाहता हूँ। आपको इस निर्जन स्थान में बड़ा कष्ट होता होगा । मैं आपकी सेवा में उपस्थित रहना चाहता हूँ। मंजूर हो तो सेवक यहाँ शरण में पड़ा रहे।" __वैरागी फिर बिना कुछ बोले मंगलदास को देखते रह गए, जैसे उनकी समझ में कोई बात नहीं पा रही थी।
असल में मंगलदास यह नहीं चाहता था कि वैरागी के चलने से बनने वाली दौलत किसी और के भी हाथ लगे। ___ उसने कहा, “महाराज, श्रापकी सेवा कर पाऊँगा तो मेरा जीवन सफल हो जायगा।"
वह वैरागी पुरुष इस पर बहुत हँसा और हाथ हिलाकर उसको कहा, "यहाँ किसी की जरूरत नहीं है।"
तब मंगलदास ने कहा कि, “पास ही फूस की झोपड़ी डाल कर अलग पड़ा रहूँगो । मैं तो अपनी आत्मा की भलाई चाहता हूँ। आपकी दया होगी तो जन्म सुधर जायगा।"
वैरागी जवाब में हँस दिये और कुछ नहीं बोले, और मंगलदास ने वहाँ श्राकर डेरा डाल लिया । वह बड़ी लगन से वैरागी की सेवा करता और हर घड़ी बिना पलक मारे हाजरी में खड़ा रहता था।
वैरागी नित्य सवेरे उस कोदिन के पास जाते थे और थोड़ी देर रहकर चले आते थे। हर रोज़ हर क़दम पर अशर्फी बनती थी जिनको मंगलदास होशियारी से बटोर लेता था। बटोर कर घर में दाब आता था।
एक बार की बात है कि चलते-चलते वैरागी को पीछे कुछ झगड़ा होता हुआ मालूम हुआ । उन्होंने लौटकर देखा कि क्या