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जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] ___ “जाश्रो-अभी जाओ। जल्दी से लाना, नहीं तो तस्वीर नहीं खिंचेगी-रात हो जायगी।"
रामेश्वर कुछ कह न सका। इस अनुनय-पूर्ण आज्ञा में ऐसा कुछ था, जो अनुल्लंघनीय था । वह चल दिया । माँ हत-बुद्धि-सी, पागल-सी, निर्जीव-सी वहीं-की-वहीं बैठ गई।
घण्टे-भर बाद जब वह कैमरा लाया, तो माँ ने हँसने का प्रयत्न किया ! अब तक वह शायद रो रही थीं।
माँ बड़ी सज-धज के साथ आई थीं। जब फोकस ठीक करके रामेश्वर एक-दो-तीन बोलने को हुआ तो माँ ने अपनी सारी शक्ति लगाकर चेहरे पर स्मित हास्य की चमक ले आने का प्रयत्न किया । श्राह ! वह हँसी कितनी रहस्यपूर्ण और कितनी दुःखपूर्ण थी ! जितना ही उसमें उल्लास प्रकट करने का प्रयास था, उतना ही उसमें विषम पीड़ा का प्रत्यक्ष दर्शन था।
फोटो खिंच चुकने पर फिर वह अपना सारा बल लगाकर बड़ी मुश्किल से सम्भली रहीं और रामेश्वर के समीप आकर बोलीं, "एक दिन तुमने श्याम की और मेरी तस्वीर साथ-साथ खींची थी, याद है न ? वह मैंने तुड़वा दी थी! क्यों, भूल तो नहीं गये ? अब एक काम करोगे?"
रामेश्वर ने मूक दृष्टि में अपेक्षा और उत्सुक-स्वीकृति भरकर माँ को देखा। ___ "सुनो, मेरा चित्र तैयार करना।"-माँ ने भीतर की जेब से एक फोटो निकालकर देते हुए फिर कहा, "और यह लो श्याम का चित्र । इन दोनों का एक चित्र तैयार करना और उसका बड़े-से-बड़ा रूप ( Enlargement ) करके अपने यहाँ लगा लेना । यह काम तुम्ही करना, किसी दूसरे को न देना जानते हो, श्याम तुम्हें प्यार