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१८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग]
"अच्छा, अच्छा," पिता बोले, “बोल क्या इनाम लेगा ?" बालक सोचता रह गया । बोला, "आप देंगे ?"
पिता बोले, "कैसी पागल की-सी बात करता है । रे, देंगे नहीं तो क्या यों ही। सौ लड़कों में अव्वल आना क्या हँसी खेल है !"
माँ बोली, “ला रे मेरे पाँच रुपये ।" और बच्चे के हाथ से अपना पाँच का नोट ले वह झपट कर चौके में चली गई।
उसी समय जीने पर चप्पलों की आहट हुई, और प्रमिला ने प्रवेश किया। हाथ में उसके रुमाल से ढकी तश्तरी थी। बालक उसे देखते ही उछाह से उसकी ओर दौड़ा प्रमिला बोली, “सबर तो कर, तेरे ही लिये तो यह लाई हूँ। क्यों रे, कहा भी नहीं, और अव्वल आ गया ।"
बालक के पिता ने कहा, 'प्रमिला,'और मानो आस-पास देखने लगे कि पत्नी कहाँ है । पत्नी आहट पर हाथ का सब काम छोड़ जीने की ओर अाँख लगा रही थी, और यद्यपि चौके से नहीं निकली थी, पर अन्दर कोने की खिड़की से सब-कुछ निगाह में रखने का प्रयत्न कर रही थी। जैसे अपने पर उसे बस न हो। चाहती हो न दीखे, और देखे, उसके प्यार में आई इस प्रमिला को और उसके आने पर उसके घर वालों के चेहरों पर सहसा उमड़ आए उत्साह को ओट में ही रहने दे, पर यह उससे न बना। जाने कैसी मुद्रा से खिड़की के पीछे से कोने में खड़ी वह उसी ओर आँख गड़ाए रही।
प्रमिला के गले से लगे-लगे अपनी जगह पाते हुए बालक को सहसा माँ के चेहरे की झलक दीख गई।
प्रमिला ने कहा, "यह ले, बता और क्या इनाम लेगा।" "माँगूंगा तो दोगी?"