________________
जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
बालक ने ढीठ भाव से माँ की आँखों में देखते हुए कहा, "हाँ, वहीं जा रहा था ।"
माँ सुन कर सन्न रह गई, फिर उसका अपने पर बस न रहा, उसका हाथ छूट पड़ा और बच्चे की उसने वहीं खासी मरम्मत कर डाली। बच्चा पिटता रहा, मगर रोया नहीं। रोया नहीं, इससे माँ भी अपनी मार जल्दी न खत्म कर सकी । अन्त में थकना हुआ और माँ बालक को खाट पर औंधा पड़ा छोड़ लौट आई ।
१६
सोचने लगी कि यही उसका भाग्य है । घर में एक वह है और उस का काम । काम ही एक संगी है। एक रोज इसी में मर जाना है। बाकी तो सब बैरी हैं। मुझे तो मौत श्रजाय तो भला ! एक वह हैं कि सवेरे छाता उठाया और चल दिये और शाम को श्रये कि सब किया मिले। एक मैं करूँ और मैं ही मरूँ । और मरने को मैं, मौज करने को चाहे कोई दूसरी और एक यह है कम्बख्त ! मुझे तो गिनता ही नहीं, बस सदा उनके कहने में । घर क्या जेल है। एक उसने बाँध रखा है। नहीं तो जहाँ होता चली जाती, मंगर यहाँ का मुँह न देखती; न दाना लेती न पानी । पर यह छोकरा ऐसा बेहया है कि...
सोचती जाती और करती जाती थी । हाथ काम पर तनिक भी शिथिल न पड़ पाते थे । सफाई उसने अतिरिक्त कर डाली । व्यवस्था और व्यवस्थित हो गई। तो भी समय का अन्त आ गया । यह उसे अच्छा न लगता था, खालीपन उसे काटता था । विश्राम मानो उसे नरक हो आता था । पर हाथ के लिए काम कुछ न रह गया था। ऐसे में वह अन्दर गई । देखा बालक पड़ा सो रहा है । उसे पहले अचरज हुआ । मानो याद करके उसने जाना कि यह तो पिट कर सोया है । वह कुछ देर खाट के पास खड़ी अपने इस