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बिल्ली बच्चा
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बची थीं । उस समय जब कभी सोते-सोते वह मुस्कराती थी, तब देखकर मन आनन्द के साथ ही बड़ी व्यथा और आशंका से भर
आता था । पर नींद उसे बहुत कम आती थी। इतनी कल ही उसे कब पड़ती थी कि नींद आए। अधिकतर बेहोशी की ही नींद उसे आती थीं। उस बेहोशी में प्रलाप जारी रहता, जो उसमें से मानो बची-खुची शक्ति को खींचकर उलीच रहा था ।
ऐसे ही दुविधा में सात रोज बीते । उसकी माँ सब सुध बिसार कर सब काल उसी के सिरहाने बैठी रहती थी। जब बच्ची की पलकें कभी कुछ देर को लग पातीं तभी उसके खटोले की पट्टी को वह छोड़ती थी।
तब धीरे-धीरे थपका कर वह मुन्नी की नींद को मानो उन पलकों पर जमा देती, और जब नींद जम जाती तब फिर अचक पाँव धरती हुई वहाँ से वह कहीं जाती।
बच्ची की हालत गिरती ही गई। जीने की चाह ही जैसे भीतर से धीमी होती जा रही थी। डाक्टर हारने लगे और हकीम-वैदों की समझ में भी कुछ बात ठीक न बैठी। बस, बच्ची की अम्मा का जी ही इस बारे में पक्का था कि मुन्नी को जीना होगा।
बुखार तो कट गया था, पर शरीर छीजता ही जाता था। पथ्य कोई लगता ही न था । मानो अब तो बह अपनी माँ की सदभिलाषाओं पर और उसके संकल्प के बल पर ही जी रही थी। __एक रोज शरबती की आँख छब्बीस घंटे के बाद कहीं जाकर लगी, तब माँ जरा उसे छोड़कर नित्य-कर्म से तनिक निवृत्ति पाने के लिए उठ कर उठी। पर इस बीच भी वह हर तरह की आहट के प्रति चौकन्नी रह रही थी। थोड़ी देर में उस ओर से किसी की बारीक चिचियाने की आवाज उसने सुनी। वह भागी गई कि