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२१४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] तिल रखने को ठौर न बचा । जीभ पर वही फफोले उठ आये और तालू पर भी । पलक के ऊपर भी दाने थे, वैसे ही पलक के नीचे। छह रोज तक सी के ऊपर तीन-तीन चार-चार डिगरी बुखार उसे रहा । आँखें बन्द हो गईं और उनके ऊपर मोटे-मोटे दो फोड़े से उठ आये । महाशय विजयकुमार को तब एक छन चैन न मिली। वह न इस करवट सो पाते, न उस करवट । जिधर सोयें उधर ही समझिए, शरीर में विंधे हुए काँटे, गहरे-गहरे विंधते थे । कल किसी तरह न थी । कण्ठ में सुर रहता, तब तक विजय बाबू चिचियाते रहते । दम न रहा, तव बेदम हो रहते थे। चेचक के दानों से विजय बाबू का कमल-सा सुन्दर मुँह ऐसा हो गया थाकि डर लगता था । आँखें उसमें नदारद थीं, चेहरे पर उठी हुई नाक कहीं भी न चीन्ह पड़ती थी, और मुंह की बात पूछिए नहीं। इस हालत में उनके पेट में न कुछ खाद्य पहुँच सकता था, न पेय । कुछ ठण्डे पानी की बूंदें जो कहिए अनुमान के सहारे मुंह पहचान कर उनके ओठों के बीच में चुना दी जातीं, वह पानी विजय बाबू को मोनो अमित ठंडक पहुँचाता। विजय बाबू जैसे तब मुस्कराना चाहते । उस मुस्कराहट को देखकर आँसू रोकना मुश्किल हो जाता था । मुंह ऐसा डरावना, फिर भी ऐसा करुण लगता था कि... __खैर, वह दूसरी कहानी है । सात-आठ रोज अपनी अम्मा की गोद में पड़े रहकर और माता चेचक की छीना-झपटी में विजय बाबू ने एक सप्ताह तो निकाला । उस सप्ताह के बाद बाबू यहाँ से लंगर तोड़, राम जाने कहाँ के लिए चल पड़े । डाक्टर भी रह गये, उनकी अम्मा भी रह गई, हम भी रह गये । इन यों ही रह जाने वालों में शरबती का नाम सहसा नहीं आता। शायद इसलिए कि