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जैनन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] बुआ ने चौके से आते हुए कहा, “पीले, बेटी, फिर खेलना ।" और अपनी छोटी भौजाई को कहा, "बच्चे को नेक प्यार से कहो, सब मान जायगा ।"
"प्यार से नहीं, मैं तो बड़े गुस्से से कहती हूँ ? लड़की इसी से तो मुँह चढ़ी है।"
बुआ कहा, "पी, बेटा, पी।"
मैं अपने कमरे में बैठकर यह सुनने लगा। मेरी बहन चली गई, और लड़की ने शायद दूध पीना आरम्भ कर दिया ।
इतने में नीचे से पड़ौसी के लड़के हरिया ने आवाज दी, "नूनी, ओ नूनी !”
नूनी ने कहा, "आई !"
नूनी की माँने कहा, "पहले दूध पी, (और कहा,) "हरी, वह नहीं आयगी।"
हरिया ने जोर से कहा, "नूनी, अरी आई नहीं।"
इतने में मैंने सुना, “बच्चों को कड़ी ताकीद में रखने की उपयोगिता के सम्बन्ध में भाषण प्रारम्भ हो गया है, जिसमें श्रोतावर्ग में केवल बालकों के पिता लोग ही जान पड़ते हैं। और मेज पर शायद एक बाल-मूर्ति भी है, जिसको भली भाँति डाँट-डपटकर
और मार-पीटकर भाषण, सामने-के-सामने, सोदाहरण परिपुष्ट किया जा रहा है।" ____मैं समझ गया, नूनी अनुशासन की मर्यादा को, हरिया की बाँसुरी की-सी आवाज पर, तोड़-ताड़कर अपने शिशु-अभिसार को सम्पन्न करने के लिए भाग छूटी है। और मैंने जान लिया, अपने विक्षोभ को खर्च कर डालकर स्वस्थ हो जाने के लिए, विवाद मोल लेने को मेरी पत्नी अब फिर बहन के पास पहुंच गई हैं।