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१८६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग]
उन्होंने कहा “मैं पाठशाला तो भेजना नहीं चाहती। अध्यापिका सब ऐसी ही होती हैं, बच्चे का नेक ख्याल नहीं रखतीं। और धमकावें मारें भी, इसका क्या ठीक है । नहीं, बच्चे को मैं आँख
ओझल नहीं करूँगी। पर, एक पढ़ानेवाली और लगा दो । घरपर पूरे पाँच घण्टे उसे पढ़ाना चाहिए।"
मैंने कहा, “पाँच घण्टे !" "तुम्हारा बस हो, तुम सारी उमर उसे खेलने दो।"
मैंने कहा, “पाँच घण्टे बहुत होते हैं। एक घण्टा पढ़ लेना बहुत काफी है । यों अभी जरूरी वह भी नहीं है।"
"तुम्हारे लेखे जरूरी कुछ नहीं है। सिर तो मेरे बीतती है।" मैंने कहा, "अच्छी बात है, एक घण्टा मैं पढ़ा दिया करूँगा।" तुम पढ़ाकर रखोगे ? यह होता तो दिन ही अच्छे न होते। मैंने कहा “समझो, अब दिन अच्छे आगए । मैं पढ़ाऊँगा।" “पढ़ाना, कहीं तमाशा करो।" "जैसे पढ़ाऊँगा पढ़ा दूंगा। यह काम तो मेरे ऊपर रहने दो।"
वह आश्वस्त और प्रसन्न होकर बोली, "अच्छी बात है । मैं देख लिया करूँगी।"
और वह चली गई और में अपने काम में लग गया। पर कुछ ही देर में वह लौट आई, और मेरे सामने के कागजों को सरका देकर मेजके पास खड़ी हो रही । जिज्ञासा-भाव से मैं उनकी ओर देखकर रह गया ।
बोली, "तुम नाराज तो नहीं हो गए ? देखो, नाराज मत होना । मैं क्या करूँ ? मेरा मन कहता है, बिट्टनको खूब पढ़ाना चाहिए, और खूब अच्छा बनाना चाहिए । इसीसे मैं कहती हूँ।"
मैंने कहा, "ठीक तो है।"