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१६० जनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] इस बच्चे को खूब अच्छा खिलाऊँगी। देख लेना, माजी । मैं कहीं नहीं जाने की, बिगाड़ करूँ, निकाल देना।" ___ "अच्छा तो कल आना, मैं उनसे पूँछ लँगी।"
"मुझे, जी, यहीं पड़ जाने दो। कोई कोना दे देना, पड़ रहूँगी। कल उनसे पूछ लेना।"
"कल आ जाना । सब ठीक हो जायगा । आज तो..."
"मैं नहीं जाऊँगी। यों ही पड़ी रहूँगी । बच्चे को साथ लेकर पड़ी रहूँगी-तुम्हें दुःख नही पहुँचाऊँगी।"
इस हठपूर्ण अनुनय को करुणा किसी तरकीब से टाल न सकी। बोली-“अच्छा । पर नौकरी कल से ही...।" ।
"हाँ-हाँ, जब से चाहो"-उसने सहर्ष स्वीकृति से कह दिया । अगले दिन करुणा ने प्रमोद से पूछा । उसने कह दिया
"क्यों नहीं ? मुझ से पूछने की इसमें क्या बात थी; जरूर रख लो, जरूर रख लो।"
"जान-पूछ तो की नहीं-"
“यही जान-पूछ बहुत है कि बच्चे को प्यार से रख सकती है। लेने को अपने से क्या ले जायगी-एक-आध कपड़ा-लत्ताबस।"
पतिया उस रोज़ से पृथ्वीचन्द को खिलाने पर, खाने और कपड़े पर, नियुक्त हो गई।
लेकिन देखा गया, पतिया बच्चे को लाड़ करने, पुचकारने, खिलाने और बनाने-संवारने से सन्तुष्ट नहीं है, वह मानो और भी कुछ ज्यादा चाहती है। वह मानो उस पर अपना सम्पूर्ण