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अनन्तर
आज तेरे बाप को दुनिया रो रही है । ऐसे कितने भागवान जनमते हैं ? उसी का बेटा होकर तू रोता है !"
कहते-कहते माँ अवश भाव से फूट उठीं और बच्चे की हिचकी बँध आयी।
मैंने पास जाकर माँ को खींच कर अलग करते हुए कहा, "माँ, क्या कर रही हो । चलो उठो, चुन्नू, ओ चुन्नू, चल उठ । हाथ-मुँह धोकर आ और कुछ पानी-वानी पीले, सबेरे से भूखा है ! तुझे काहे का सोच है । चल उठ ।"
पर इस प्रसंग को छोड़िये । ज्यों-त्यों दिन कटा । दिन तो कटता ही है । कोई मरे पर जीने वाले को जीना काटना है। बिलखो तो, हँसो तो। होते-होते शाम आ गई । जग धुंधला हो चला । सब के मन भारी थे। आये चले गये। घर में बस घर के रह गये थे। कह लो तो मुझे ही बाहरी कह लो । पर मैं अपने से ज्यादा इस घर का था । इसे समझाता, उसे बहलाता, घर के कामों को सम्भार रहा था । काम तो कोई रुकता नहीं। साँस है तब तक साँसत है। रंज में रहोगे और खाना-पीना भूल जाओगे तो कब तक ? कुछ और काम भूल जाओगे तो कब तक ? समय तो रुकता नहीं। और काम जब कोई रुकता है तो वही बाद में सिर पर बोझ बना खड़ा दिखाई देता है। और कोई विशेष घटना घटती है तब तो काम बढ़ ही जाता है चाहे कभी फुर्सत हो, तब फुर्सत नहीं मिल सकती। और रंज भी एक काम है जिसके लिए फुर्सत चाहिये।
रात हो पायी। दिन की दे-ले निबटी। अँधेरा ऊपर से उतरने लगा। वह अँधेरा अनजाने जैसे चारों ओर छा आया । क्या अँधेरा प्रभाव ही है ? पर उस अँधेरे में अपना रूप था। उसमें