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________________ जिनको परम आदरणीय मानते आये थे उन्हीं को हम बहुत-से जन मिलकर अभी फूंक-फाँक कर लौटे हैं। वाँस की अर्थी पर उनकी देह को कस कर बाँधा और कन्धों पर लिये-लिये जलूस में हम तेजी से चलते चले गये, लकड़ी के ढेर में उसे रक्खा , आँच दिखायी और राख कर दिया। सारे रास्ते भर हम पुकारते गये थे-राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है !' मानों राम के नाम के सत्य के आगे मौत झूठ हो जाती हो । मानो नियति के आघात पर वह हमारा एक उत्तर हो। ___मैं घर आ गया। रोना-कलपना थमा था। एक सन्नाटा मालूम होता था। माँ चुप थीं, और जिधर देखती, देखती रह जाती थीं। मैंने कहा, "माँ उठो । चलो, बालकों को कुछ देखो-भालो, वे भूखे हैं।" माँ ने मुझे देखा । जैसे वह कुछ समझी नहीं हैं। माफी चाहती हैं कि भाई, मुझे कुछ सुनता नहीं है; माफ करना, मुझे कुछ सूझता नहीं है।
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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