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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] रहा था । हम कहीं-के-वहीं बैठे थे। सर्दी-सी मालूम हुई। हमारे ओवरकोट भीग गये थे।
पीछे फिरकर देखा । वह लॉन बर्फ की चादर की तरह बिल्कुल स्तब्ध और सुन्न पड़ा था।
सब सन्नाटा था । तल्ली ताल की बिजली की रोशनियाँ दीपमालिका-सी जगमगा रही थीं । वह जगमगाहट दो मील तक फैलेहुए प्रकृति के जल-दर्पण पर प्रतिबिम्बित हो रही थीं। और दर्पण का काँपता हुआ, लहरें लेता-हुआ वह तल उन प्रतिबिम्बों को सौगुना हजार-गुना करके उनके प्रकाश को मानों एकत्र और पुजीभूत करके व्यस्त कर रहा था। पहाड़ों के सिर पर की रोशनियाँ तारोंसी जान पड़ती थीं।
हमारे देखते-देखते एक घने पर्दे ने आकर इन सब को ढंक दिया । रोशनियाँ मानों मर गई । जगमगाहट लुप्त हो गई। वह काले-काले भूत-से पहाड़ भी इस सफ़ेद पर्दे के पीछे छिप गये। पास की वस्तु भी न दीखने लगी। मानों वह घनीभूत प्रलय थी। सब कुछ इस घनी, :गहरी सफेदी में दब गया। जैसे एक शुभ्र महासागर ने फैलकर संसृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया। ऊपर नीचे, चारों तरफ, वह निर्भेद सफेद शून्यता ही फैली हुई थी। ___ ऐसा घना कुहरा हमने कभी न देखा था। वह टप-टप टपक रहा था। ___ मार्ग अब बिल्कुल निर्जन, चुप था। वह प्रवाह न जाने किन घोसलों में जा छिपा था।
उस बृहदाकार शुभ्र शून्य में, कहीं से ग्यारह टन टन हो उठा। जैसे कहीं दूर कब्र में से आवाज आ रही हो !