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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] प्रद्युम्न पीछे की एक तरफ बैठा था। औरों के साथ के बच्चे सब सो गए थे। प्रद्युम्न बिल्कुल नहीं सोया था। इस वक्त भी जैसे वह यहाँ से उठना नहीं चाहता था ।
सब्जमाला ने उठती-उठती का हाथ पकड़ कर मुझे बैठाल लिया और कहा, "लाला आ तो गए हैं।"
मैं और भी घबरा कर बोली, "श्रा गए हैं ?"
सब्ज़माला ने कहा, "वह देख, कमरे में बत्ती जल रही है।" यह कहकर उसने मुझे अंक में भर कर चूम लिया । इस सहेली की मैं यहाँ बात नहीं कर सकती । वह मुझ पर जबर्दस्ती करती है ; लेकिन इस जबर्दस्ती से ही मैं उसकी हूँ। बोली, "लाला थोड़ी देर अकेले रह लेंगे, तो क्या हो जायगा ? तुझे छोड़ कर खुद जो महीनों बाहर रहते हैं।"
मैंने कहा, "उन्होंने खाना नहीं खाया, जीजी ! मुझे जाने दो।"
"श्राप ले के खा लेंगे।" कहते हुए उसने मुझे जबरन बैठा लिया।
प्रद्युम्न अपनी जगह बराबर ध्यान लगाए बैठा था । खैर, मेरे बैठ जाने पर चोरी से हटकर चोरों की बात होने लगी। वे निर्दयी होते हैं, चालाक होते हैं, पास में कुछ-न कुछ हथियार रखते हैं। इसी तरह बात आगे बढ़कर डाकू, जेलखाना, कालापानी, और फाँसी तक पहुँची । घड़ी ने दस बजाए, तब जाकर मेरा छुटकारा हुमा । और जनीं भी तब अपने घर गई । प्रद्युम्न उँगली पकड़े मेरे साथ आ गया।
प्रद्युम्न के बाबूजी लेटे हुए किताब पढ़ रहे थे। कहा, “पता है अब क्या बजा है ?"
मैंने टालते हुए कहा, "खाना खा लिया ?"
सपा।