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________________ ( ५५ ) पित्रादि परनन्प्रत्याहामनायेन्यन्यम्त्री ना न विशिष्यते) । जब श्या भी परम्बी है श्रार विवाह द्वारा उप का परस्त्रीय दूर कर दिया जाता है नर कन्या के समान विधवा का भी पर म्त्रीव दर कर दिया जावेगा। शथवा जैग्ने विधुर का परपुरु'पन्च दर होता है इसी प्रकार विधवा का परस्त्रीय दूर हो जायगा। गैर, जर मागारधर्मामृत की बान चल पडी है नब हम भी कुछ निग्न देना चाहते हैं। विधवाविवाहविरोधी, अपने श्रमान तिमिर को इटा कर जग देखें। नागारधर्मामृत में वेश्यामेची को भी ब्राह्मचर्याणुवती माना है, वोरिप्रन्यकार के मन से वेश्या, पर-खी नहीं है। उनका कहना है कि "यस्तु बदाग्बसाधारण स्त्रियोऽपि वनयितुमशक्तः पग्दागन्य चयनि सोऽपि ब्रह्माणुवनीप्यने" अथांन जो वस्त्रों के समान वेश्या को भी छोडने में असमर्थ मि परस्त्री काही त्याग करता है वह भी ब्रह्मचयांणुवती नका मतलब यह है कि वेश्या, परस्त्री नहीं है, क्योंकि उस का कोई नामी मौजूद नहीं है । यदि ऐसी वेश्या का मंघन करने वाला पावती हो सकता है तो विधवासे विवाह फरने वाला प्या टाणवनी नहीं हो सकता ? वेश्या, परस्त्री नहीं है, किन्तु यह पूर्णरूप मे म्बस्त्री भी ना नहीं है। परन्तु जिम विधवा के साथ विवाह कर लिया जाना है, वह नो पूर्णपणे बरती है। कानून वेश्याम्बस्त्री नहीं कहलानी, जबकि पुनर्विवाहिना म्यस्त्री कहलानी है। इनने पर भी अगर वेश्यानी द्विनीर श्रेणी का अपव्रती कहला सकना है तो विधवाविवाह करने वाला प्रथम श्रेणी का अणुवती कहलो सकता है। मागारधर्मामृन में जहॉइत्वरिफागमन को ब्रह्मचर्याणुव्रत
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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